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________________ सुशिष्य एवं चंडरुद्राचार्य की कथा श्री उपदेश माला गाथा १६७ वणिकपुत्र के साथ दूर बैठे हुए आचार्य के पास पहुँचे। गुरुमहाराज को वंदन करके वे मजाक में उनसे कहने लगे-'महाराज! इसे दीक्षा देकर अपना शिष्य बना लें।" यह सुनकर आचार्य मौन रहे। उन बालकों ने फिर से कहा-"स्वामिन्! इस नयी शादी किये हुए हमारे इस मित्र को शिष्य बना लों।'' तीन-चार बार इसी प्रकार कहने पर आचार्य चंडरुद्र को क्रोध आ गया। उन्होंने उसे जबर्दस्ती पकड़कर दोनों पैरों के बीच में उसका सिर रखकर उसका लोच कर डाला। यह देखकर सभी बच्चे भाग गये और विचार करने लगे-"अरे! यह क्या हो गया? इन्होंने तो हमारी मजाक को सच मानकर इसे मूंड ही डाला।" ___नवदीक्षित शिष्य ने गुरुमहाराज से कहा- "गुरुदेव! अब हमें यहाँ से दूसरी जगह चल देना चाहिए। क्योंकि मेरे माता-पिता तथा मेरे श्वसुरपक्ष आदि के लोग यह बात सुनेंगे तो यहाँ आकर महान् उपद्रव मचायेंगे।" तब . गुरुमहाराज ने कहा- 'वत्स! मैं रात में चलने में अशक्त हूँ।' अतः नवीन शिष्य अपने गुरुमहाराज को अपने कंधे पर बिठाकर वहाँ से चल पड़ा। अंधेरी रात में चलने से उसके पैर जमीन पर ऊंचे-नीचे पड़ने लगे। इससे चंडरुद्राचार्य क्रोधित होकर उसके सिर पर डंडे मारने लगे। जिससे उसके सिर से खून बहने लगा और अत्यंत वेदना होने लगी। परंतु उसके मन में जरा भी क्रोध नहीं आया। प्रत्युत उसने अपनी ही गलती समझी। सोचा- "धिक्कार है मुझ पापी को! गुरुमहाराज को मेरे कारण इतना कष्ट उठाना पड़ा। गुरुदेव अपने स्वाध्याय और ध्यान में स्थित थे, मगर मुझ दुष्ट ने इन्हें रात को ही चलने को विवश कर दिया। इस अपराध से मैं कैसे मुक्त होऊंगा?" इस तरह शुभ भावना करने से शुभध्यान के कारण घातीकर्मों का क्षय होने से उस नवीन मुनि को केवलज्ञान प्रकट हो गया। इससे सर्वत्र प्रकाश होने से वे मुनि अच्छी तरह सरलता से चलने लगे। अतः गुरुमहाराज ने उसे कहा-'डंडे पड़े तभी सीधा चल रहा है न? अब तेरे पैर ठीक पड़ रहे हैं। दण्डप्रहार का ही चमत्कार है यह!' तब शिष्य ने कहा-"गुरुदेव! अब मैं सरलगति से चल रहा हूँ, यह आप की ही कृपा का फल है।" इस पर गुरु ने पूछा-'क्या तुझे कोई विशिष्ट ज्ञान हुआ है?' उसने कहा-'हाँ, स्वामिन्! आपकी कृपा से मुझे केवलज्ञान हुआ है।' शिष्य के ये वचन सुनकर गुरु को अत्यंत पश्चात्ताप हुआ-"अरे मैंने अत्यंत विरुद्ध कार्य किया। धिक्कार हे मुझे! मैंने केवली की आशातना की इसके सिर पर मैंने डंडे मारे। यह मेरा पाप किस तरह नष्ट होगा?''इस तरह पश्चात्ताप करते-करते गुरु शिष्य के कंधे से उतर पड़े और उसके चरणों में पड़कर अपने अपराध की बार-बार क्षमायाचना करने लगे। 276
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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