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________________ श्री उपदेश माला गाथा १६६-१६७ सुशिष्य एवं चंडरुद्राचार्य की कथा अनुयायी वीर, सामंत आदि को कितना लाभ मिला है?' भगवान् ने कहा- 'उनको तो केवल कायक्लेश हुआ है; क्योंकि इन्होंने तो केवल तुम्हारा अनुकरण करके ही वंदन किया है। अतः बिना भाव के किसी क्रिया का फल नहीं मिलता है। इसी तरह अन्य जीवों को भी भावपूर्वक मुनिमहाराज की पूजाभक्ति करनी चाहिए; ऐसा इस कथा का उपदेश है ।।१६५।।। अभिगमण-चंदण-नम-सणेण, पडिपुच्छणेण साहूणं । चिरसंचियं पि कम्म, ख्रणेण विरलत्तणमुवेइ॥१६६॥ शब्दार्थ - साधु-मुनिराजों के सम्मुख स्वागत के लिए जाने से, उनको वंदन-नमस्कार करने से और उन्हें सुखसाता पूछने से चिर संचित कर्मदल भी क्षणमात्र में क्षय हो जाते हैं। इसीलिए सुसाधु को सद्भाव से नमस्कारादि करना चाहिए।।१६६।। केइ सुसीलासुहमाइ, सज्जणा गुरुजणस्स वि सुसीसा । विउलं जणंति सद्धं, जह सीसो चंडरुद्दस्स ॥१६७॥ शब्दार्थ - सुशील अत्यंत धर्मात्मा और सज्जन सुशिष्य अपने गुरु महाराज के प्रति अपनी श्रद्धा रखते हैं; जैसे चंडरुद्र-आचार्य के नये शिष्य ने श्रद्धा दृढ़ की थी॥१६७॥ भावार्थ - कई सुशिष्य गुरु देव के चित्त में समाधि उत्पन्न कराते हैं। गुरुदेव शिष्य को कभी कारणवश डांटडपट या वाक्-प्रहार आदि करते हैं, फिर भी सुशिष्य खिन्न न होकर प्रसन्नचित्त से गुरु की सेवा करता है। ऐसा विनम्र वृत्तिवाला शिष्य गुरुदेव के विनय के फलस्वरूप चंडरुद्र-आचार्य के नये . दीक्षित शिष्य के समान केवलज्ञानादिक संपदा प्राप्त कर मुक्ति-कमला का वरण कर लेते हैं। सुशिष्य की ऐसी विनयवृत्ति से गुरुमहाराज को भी महान् लाभ मिलता चंडरुद्राचार्य की कथा ____ महापुरी उज्जयिनी में एक समय श्री चंडरुद्राचार्य पधारें। वे बड़े ईर्ष्यालु और क्रोधी थें। इसीलिए वे अपना आसन शिष्यों से दूर रखते थे। एक दिन वहाँ नयी शादी किया हुआ कोई वणिक् पुत्र अपने मित्रों के साथ आया। उसने सभी साधुओं को वंदना की, उसके बालमित्र हास्य से कहने लगे-"स्वामिन्! इसे आप अपना शिष्य बना लें।" तब मुनियों ने कहा-'महानुभाव! यदि यह दीक्षा लेना चाहता है तो वहाँ दूर बैठे हुए हमारें गुरुमहाराज के पास जाये।' वे बालमित्र 275
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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