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भाववंदन पर श्रीकृष्णजी का संक्षिप्त जीवनवृत्त श्री उपदेश माला गाथा १६५ वहाँ से हटा दी और उसके स्थान पर लिंग की स्थापना की।
इसीलिए विषयों में अनुराग नहीं करना चाहिएं, यही इस कथा का सारभूत उपदेश है ॥१६४।।
सुतवस्सिया ण पूया, पणाम-सक्कार-विणय-कज्जपरो ।
बद्धं पि कम्ममसुहं, सिढिलेइ दसारनेया व ॥१६५॥
शब्दार्थ - 'निर्मल तप-संयम की आराधना करने वाले महामुनियों का वस्त्रादि देकर उनका आदर करना, मस्तक से उन्हें नमस्कार-वंदन करना, उसके गुणों की प्रशंसा करके उनका सत्कार करना, मुनि आवें तो खड़े होकर विनय करना इत्यादि कार्यों में तत्पर रहने वाला पुरुष कृष्ण वासुदेव के समान आत्मप्रदेश के साथ लगे हुए पूर्वकृत अशुभ कर्मों को शिथिल कर देता है ।।१६५।।' यहाँ दश दशाहों के नेता श्रीकृष्णजी का चरित्र संक्षेप में दे रहे हैं
श्रीकृष्णजी का संक्षिप्त जीवनवृत्त ___ एक बार विहार करते हुए श्री नेमिनाथ भगवान् द्वारिका नगरी में पधारें। उन्हें वंदन करने के लिए श्रीकृष्णजी अपने परिवार सहित पहुँचे और मन में उत्कण्ठा जागी कि 'आज मैं भगवान् के अठारह ही हजार मुनियों में से प्रत्येक को द्वादशावर्तपूर्वक वंदन करूँ' तत्पश्चात् अपने भक्त वीर, सामंत आदि के साथ सभी साधुओं को विधिसहित वंदना करके वे अत्यंत थक गये। अतः वे भगवान् के पास आकर बोले- "भगवन्! आज मैं आपके अठारह ही हजार साधुओं को वंदन करने से थककर चूर-चूर हो गया हूँ। मैंने अपनी जिंदगी में तीन सौ साठ युद्ध किये, लेकिन उनमें किसी समय इतनी थकावट नहीं आयी। पर पता नहीं आज मैं इतना क्यों थक गया हूँ?" भगवान् ने कहा- "महानुभाव! वंदना करने से तुम्हें जितनी अधिक थकावट हुई है, उतना अधिक लाभ भी तो तुमको हुआ है! क्योंकि इतनी उमंग से वंदना करने से तुम्हें क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त हुआ है तथा तुमने तीर्थंकर-नामकर्म भी उपार्जित किया है। साथ ही संग्राम में लड़कर तुमने जो सातवीं नरक के योग्य कर्म बांधे थे, उन्हें क्षय कर दिये इसीलिए अब तुम्हारे सिर्फ तीसरी नरक के योग्य कर्म रह गये हैं। इतना महान् लाभ तुम्हें मिला है।'' यह सुनकर श्रीकृष्ण ने कहा-'भगवन्! यदि ऐसी बात है तो मैं फिर से अठारह हजार मुनियों को वंदनाकर तीन नरक के योग्य कर्मों का क्षय कर डालूं।' इस पर भगवान् ने कहा-"कृष्ण! अब वैसे भाव नहीं आ सकते; क्योंकि अब तुममें लोभ ने प्रवेश किया है।' कृष्ण ने फिर पूछा- 'मुझे जब इतना लाभ मिला है, तब मेरे
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