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________________ श्री उपदेश माला गाथा १६४ सत्यकि विद्याधर की कथा यहीं रहने लगा। अन्यत्र कहीं उसका मन नहीं लगता था। वेश्या और सत्यकि में परस्पर गाढ़ प्रीति हो गयी। इस प्रकार सत्यकि को उमा ने अत्यंत विश्वास में ले लिया। एक दिन मौका देखकर वेश्या ने सत्यकि से पूछा- "प्राणवल्लभ! आप सदा अपनी इच्छा के अनुकूल किसी भी पराई कामिनी का सेवन करते हैं। आपकी इस चेष्टा को देखकर कोई भी आपको मारने में समर्थ नहीं है। आप के पास ऐसा कौन-सा बल है, जिससे आपको कोई मार नहीं सकता?'' तब सत्यकि ने कहा"सुनयने! मेरे पास एक ऐसी विद्या है, जिसके प्रभाव से मुझे कोई भी मार नहीं सकता।" तब वेश्या ने उत्सुकतावश फिर पूछा- "स्वामीनाथ! आप उस विद्या को हर. समय साथ ही रखते हैं, या किसी समय अपने से दूर भी रखते हैं?" वेश्या के विश्वास में आया हुआ सत्यकि बोला- “जब मैं स्त्री सहवास करता हूँ, तब उस विद्या को दूर रख देता हूँ।'' उमा वेश्या को जब इस रहस्य का पता लग गया तो उसने राजा से सारी बात कह दी। अंत में उसने राजा से कहा-"राजन्! सत्यकि को मारने का एक ही उपाय है। यदि आप मेरी रक्षा का प्रबंध कर दें तो उसे खुशी से मारा जा सकता है।" इस तरह उसने राजा को सारी बात समझा दी। उसने वेश्या के पेट पर कमलपत्र रखे और फिर उन्हें छुरी से काट दिये, परंतु वेश्या के शरीर को जरा भी चोट नहीं पहुंची। इस तरह वेश्या के दिल में एक सुरक्षा का विश्वास उत्पन्न कराकर उसे घर भेज दी। राजा ने दोनों को मार देने को अपने सेवकों को समझाकर रात को वेश्या के यहाँ उन्हें भेजे। वेश्या ने सेवकों को छिपाकर रखा। काम के आवेश में उन्मत्त सत्यकि आते ही उमा के साथ संभोग करने में जुट पड़ा। छिपे हुए सेवकों ने तुरंत वहाँ आकर दोनों के मस्तक काट डाले। सत्यकि विद्याधर के शिष्य नंदीश्वर गण को जब इस बात का पता चला तो वह अतिक्रोधित हुआ और नगर में आकर एक विशाल शिला हाथों में थामे आकाश में खड़े होकर कहने लगा-नागरिको! सुनो मेरी बात! तुमने मेरे विद्यागुरु को मार दिया है, इसीलिए जैसी स्थिति में उसे मारा है, यदि वैसी स्थिति की उसकी मूर्ति बनाकर तुम सारे नगरवासी पूजा करोगे तो मैं सभी को छोड दूंगा, नहीं तो, इस शिला से सबको चूर-चूर कर दूंगा। यह सुनकर सारे नागरिक भयभीत हो गये और राजा आदि सभी लोगों ने सलाह करके एक कलाकार से वेश्या के साथ सत्यकि के सहवास की स्थिति की मूर्ति बनवाई और एक मकान में उसकी स्थापना की। सभी नागरिक उसकी पूजा करने लगे। सत्यकि मरकर नरकगति में पहुँचा। कुछ समय के पश्चात् उस मूर्ति को अश्लील व लज्जाउत्पादक समझकर 273
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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