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श्री मेघकुमार की कथा
श्री उपदेश माला गाथा १५४ हस्तिनियों का स्वामी सुमेरुप्रभ नाम के हाथी थे। एक दिन वहाँ के जंगल में भयंकर आग लगी। तुम इस दावानल से भयभीत होकर भागे। रास्ते में तुम्हें प्यास लगी। एक कीचड़ वाला सरोवर तुम्हें नजर आया। उसमें घुसने के रास्ते का पता न होने से पानी पीने के लिए ज्यों ही तुम घुसने लगे, त्यों ही दलदल में फंस गये। बाहर निकलने की तुमने बहुत कोशिश की, लेकिन निकल न सके। तुम वहाँ फंसे हुए थे कि तुम्हारे पूर्व शत्रु हाथियों ने तुम्हें देखकर तीखे दांतों से तुम पर प्रहार किया। सात दिन तक उस की असह्य वेदना सहकर १२० वर्ष की आयु पूर्णकर तुम वहाँ से मरकर विन्ध्याचल पर्वत पर चार दांतों वाले, रक्तवर्ण और ७०० हथनियों के स्वामी बनें। संयोगवश वहाँ भी एक बार भयंकर आग लगी। पशु पक्षियों में भगदड़ मच गयी। उस दावानल को देखकर तुम्हें जातिस्मरण ज्ञान पैदा हुआ। पूर्वजन्म का स्मरण होने से तुमने एक योजन लंबा-चौड़ा एक मंडल (घेरा) बनाया; जिसमें वर्षाकाल से पहले, मध्य में और अंत में जमे हुए नये घास, तिनके, लता और अंकुरों आदि को अपनी सूंड तथा अपने परिवार की सहायता से मूल से उखाड़ फैके। और उस मंडल को तुमने साफ और सुरक्षास्थान बना दिया। एक दिन फिर उस वन में भयंकर आग लगी तो तुम सपरिवार उस मंडल में आ गये; साथ ही उस जंगल के तमाम पशुपक्षी भी अपनी जान बचाने के लिए उस मंडल में आकर जमा हो गये। वह मंडल प्राणियों से खचाखच भर गया था। अत्यंत भीड़ के कारण तंग हुआ एक खरगोश भी वहाँ आ पहुँचा। उसने और कहीं जगह न देख तुमने शरीर खुजलाने के लिए ज्यों ही अपना पैर उठाया, त्यों ही वह उतनीसी जगह में आराम से बैठ गया। परंतु शरीर खुजला लेने के बाद पैर नीचे रखते समय तुम्हारे पैर के साथ कोमल-सा स्पर्श हुआ। तुमने सोचा कि यहाँ कोई खरगोश बैठा है, यदि मैंने इस पर पैर रख दिया तो इसका कचूमर निकल जायगा। अतः उस पर दयार्द्र होकर तुमने अपना पैर ढाई दिनों तक ऊपर का ऊपर उठाये रखा। दावानल शांत हो जाने पर जब सभी प्राणी इधर-उधर चले गये; तब तुमने ज्यों ही अपना पैर नीचे रखना चाहा; त्यों ही पैर में खून जम जाने और उसके अकड़ जाने के कारण तुम धड़ाम से जमीन पर ऐसे गिर पड़े, जैसे की पहाड़ का शिखर टूटकर गिरा हो। इसके बावजूद भी तुम्हारी भावना शुभ रही और तीन दिन तक उस असह्य वेदना को सह कर अपनी १०० वर्ष की आयु पूर्ण करके तुम मनुष्यलोक में श्रेणिक राजा के पुत्र बनें। वत्स मेघ! तुम जस विचार करो, जब तुम्हें सम्यक्त्व की भी प्राप्ति नहीं हुई थी, उस समय तिर्यंचयोनि में तुमने थोड़ासा कष्ट सहन किया, जिसका नतीजा तुम्हें मनुष्यजन्म के रूप में मिला। नरकगति, 266