________________
श्री उपदेश माला गाथा १५५
गुरुकुलवास, एकलविहारी के गुण-दोष तिर्यंचगति आदि में तो तुमने और भी भयंकर कष्ट सहे हैं, फिर साधुओं के चरणस्पर्श से हुए जरा से दुःख से क्यों तिलमिला उठे? साधु की चरण रज तो शिरोधार्य होती है। वंदनीय साधुओं के पदाघात से व्यथित होकर तुम यह परम दुर्लभ चारित्र छोड़ने जा रहे हो, यह कितना उचित है, तुम ही सोचो। आग में कूदकर जल मरना या जहर खा लेना अच्छा, लेकिन अंगीकार किये हुए मुनिधर्म को छोड़ना अच्छा नहीं।' इस प्रकार से भगवान् के अमृतोपम वचनों को सुनकर मेघमुनि को वहीं जातिस्मरणज्ञान हो गया; जिसके प्रकाश में उसके सामने भगवान् के कहे अनुसार हूबहू अपने पूर्वजन्म का चित्र अंकित हो गया। मेघकुमार ने भगवान् को विधिवत् वंदन करके कहा- "भगवन्! मैं तो आज संसार रूपी कुँए में गिरने ही वाला था, लेकिन आपने मेरी रक्षा की। अब मैं इस संयमी जीवन को कदापि नहीं छोडूंगा। साथ ही मैं आपके सामने यह अभिग्रह (सुसंकल्प) करता हूँ कि आज से जिंदगीभर तक मैं अपनी दोनों आँखों के सिवाय और किसी अंग की स्वयं सेवा-शुश्रूषा नहीं करूँगा।" इस अभिग्रह का भलीभांति पालन व निर्दोष चारित्राराधन करके एवं गुण रत्न संवत्सर आदि तप करके निर्मल ध्यान पूर्वक समाधिपूर्वक अपना आयुष्य पूर्ण कर मेघकुमार मुनि विजय नामक अनुत्तरविमान में देव हुए। वहाँ से च्यव कर वे महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर मोक्ष प्राप्त करेंगे।
इसी प्रकार अन्य मुनियों को भी अपने चारित्र में स्थिर रहना चाहिए; यही इस कथा का उपदेश है ॥१५४।।
. अवरुप्परसंबाह सुक्खं, तुच्छं सरीरपीडा य ।
सारण-वारण-चोयण-गुरुजणआयत्तया य गणे ॥१५५॥
शब्दार्थ – गण (गच्छ) में रहने से मुनियों के परस्पर संघर्ष, विषयसुखों की तुच्छता, बड़ों के लिए शरीर को पीड़ा (सेवादि का कष्ट), गुरुजनों की अधीनता, उनके द्वारा की गयी सारणा, वारणा, चोयणा, पड़िचोयणा वगैरह सहने पड़ते हैं।।१५५।।
- भावार्थ - गुरुकुलवास (गण) में रहने पर कहीं-कहीं स्थान की तंगी होने के कारण परस्पर एक दूसरे का संबाध (संघर्ष) होता है, विषय-जन्य सुख भी तुच्छ (नगण्य) हो जाता है, क्योंकि बड़ों के समीप रहने पर कई बार मन को मारना होता है, इन्द्रियों की विषय में प्रवृत्त होने की इच्छा को दबाना पड़ता है; परिषह-सहन करने या परस्पर रुग्णादि साधुओं की सेवा करने में शरीर को भी घिसाना पड़ता है, जिससे थोड़ी बहुत पीड़ा भी होती है। बड़ों की बात
267