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________________ श्री उपदेश माला गाथा १५४ श्री मेघकुमार की कथा (तेला) तप करके देवाराधन किया और उस देव की सहायता से उसने रानी का दोहद पूर्ण किया। ठीक समय पर पुत्र का जन्म हुआ। स्वप्न के अनुसार उसका नाम मेघकुमार रखा। बचपन पार करके उसने जब यौवन में प्रवेश किया तो श्रेणिक राजा ने उसका विवाह कुलीन और रूपसम्पन्न ८ कन्याओं के साथ किया। मेघकुमार पंचेन्द्रियसुखों का उपभोग करते हुए जीवन बिताने लगा। एक बार राजगृही में श्रमण भगवान् महावीर का पदार्पण हुआ। मेघकुमार को प्रभु का उपदेश सुनकर वैराग्य उत्पन्न हुआ; और माता-पिता की अनुमति लेकर भगवान् के पास उसने मुनि दीक्षा अंगीकार की। भगवान् ने उसे शास्त्रों के अध्ययन के लिए स्थविरमुनि को सौंपा। रात को संथारापौरुषी (शयन के समय) का पाठ पढ़ाकर रत्नाधिक क्रम से (दीक्षा में बड़े-छोटे के क्रमानुसार) मेघमुनि का संथारा (सोने का आसन) दीक्षा में सबसे छोटे होने के कारण सब साधुओं के संथारे के अंत में उपाश्रय के द्वार के पास किया गया। रात्रि को लघुनीति के लिए आतेजाते साधुओं के पैरों की बार-बार ठोकर लगने से कठोर स्पर्श होने व आहट होने के कारण मेघमुनि को रातभर नींद नहीं आयी। इससे क्षुब्ध होकर वे मन ही मन सोचने लगे-'ये साधु पहले तो मेरा इतना आदर करते थे, और आज दीक्षा लेते ही ये मुझे पैरों से ठोकर मारकर मुझे हैरान कर रहे हैं। कहाँ तो मेरा वह सुखकारी आवास और कहाँ यह साधुओं का स्थान? कहाँ तो मेरी वह कोमल पुष्पशय्या और कहाँ आज यह खदरा और कड़ा आसन? कहाँ तो बढ़िया पलंग पर मेरी शय्या होती थी और सुकोमल अंगनाएं मेरे चरण दबाती थी, कहाँ यह भूमि पर शयन और पैरों की ठोकर? उफ! कहाँ तक सहन करूंगा इसे! इसीलिए इच्छा होती है कि रात बीतते ही प्रातःकाल होते ही मैं भगवान् के चरणों में पहुँचकर उन्हें रजोहरण आदि उपकरण सौंपकर वापिस अपने घर चला जाऊं।" इन विचारों में डूबा हुआ मेघमुनि प्रातःकाल भगवान् के पास पहुँचा। मधुर शब्दों से सम्बोधित करते हुए प्रभु ने मेघमुनि से कहा- "वत्स मेघ! क्या तुमने आज रातभर कष्ट अनुभव किया और पिछली रात को ऐसा विचार किया है कि प्रातःकाल होते ही मैं सारे उपकरण भगवान् को सौंपकर घर चला जाऊं?" मेघमुनि बोले- 'भगवन्! आपका कहना सत्य है।' तब भगवान् ने उसे कहा-'वत्स मेघ! जरा सोचो तो सही, नरक आदि गतियों के भयंकर दुःखों के सामने यह दुःख किस बिसात में है? ओर तो ओर; इससे तीसरे जन्म पूर्व तुमने हाथी के रूप में जो कष्ट उठाये थे, वे भी इसके पास नहीं के बराबर हैं। लो सुनो___ "तुम वैताढ्यपर्वत की भूमि पर श्वेतवर्ण, उच्चविशालस्कंध और हजार 265
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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