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स्वजन भी अनर्थकर, पिता कनककेतु राजा की कथा श्री उपदेश माला गाथा १४६ प्रशंसा करते हुए कहा--"पोट्टिले! धन्य है तुम्हें! तुमने उत्तम साध्वीधर्म अपनाया है। इसकी सम्यक् प्रकार से आराधना करने पर तुम्हें देवगति प्राप्त होगी। अतः अगर तूं देवी हो जाय तो मुझे प्रतिबोध देने अवश्य आना।'' पोट्टिला साध्वी इस भूमण्डल पर स्वपर कल्याण करती हुई विचरण करने लगी। चिरकाल तक निर्दोष चारित्राराधन कर पोट्टिला आयुष्य पूर्ण कर देवलोक में उत्पन्न हुई।
वहाँ अवधिज्ञान से उसने अपने पूर्वजन्म का स्थान आदि जाना और पूर्वजन्म के अपने पति-मंत्री-को प्रतिबोध देने के लिए देव रूप में वह वहाँ आयी। तेतलीपुत्र मंत्री को उसने बहुत उपदेश दिया; मगर उसे जरा भी प्रतिबोध न हुआ। देव ने सोचा-'राज्य के प्रति अत्यंत मोह के कारण इसे प्रतिबोध नहीं होता, इसीलिए इसे किसी उपाय से राज्य से विरक्त करना चाहिए।' फलतः देव ने राजा के मन में मंत्री के प्रति घृणा पैदा कर दी। उसके कारण जब मंत्री राजसभा में आया तो राजा कनकध्वज उसे आदर देने के बदले मुंह फेरकर उसके प्रति उपेक्षा करके बैठा।" राजा का यह रवैया देखकर मंत्री ने सोचा-"राजा मुझ से रुष्ट हो गया है। किसी दुष्ट ने मेरे खिलाफ राजा के कान भर दिये दिखते हैं। पता नहीं, यह मेरे साथ कैसा दुर्व्यवहार करेगा अथवा मुझे किस कुमौत से मरवायेगा! ऐसे अपमानित जीवन बिताने की अपेक्षा तो आत्महत्या करके मर जाना ही अच्छा है।" इस प्रकार के विचारों में डूबता-उतरता मंत्री घर आया और अपने गले में फंदा डाला। देव के प्रभाव से वह फंदा टूट गया। अतः उसने जहर का टुकड़ा मुंह में डाला, मगर वह भी प्रभाहीन हो गया। फिर तलवार लेकर अपनी गर्दन पर चलाने लगा। लेकिन देव ने उसकी धार बोथरी कर दी। निरुपाय होकर उसने आग में कूदना चाहा, लेकिन देवप्रभाव से आग भी ठंडी हो गयी। जब सभी उपाय निष्फल हो गये तो मंत्री उदास होकर बैठ गया। उसी समय पोट्टिलादेव ने प्रकट होकर कहा- "यह सारा जाल मैंने ही रचा है। तुम्हारे सारे मरणोपायों को मैंने ही निष्फल किया है। मेरा कहना मानो, अब आत्महत्या का विचार छोड़ो और स्व परकल्याणकारी मुनि जीवन अंगीकार करो।" मंत्री को संसार की खटपटों से विरक्ति हो चुकी थी, मोह उड़ गया था; इसीलिए उसने घरबार, संपत्ति आदि सर्वस्व छोड़कर सर्वविरतिचारित्र अंगीकार किया। राजा का भी मन अब मंत्री के प्रति बदल चुका था; वह क्षमायाचना और वंदना करने आया। इसके बाद तेतलीपुत्र मुनि ने चिरकाल तक भूतल पर विचरण किया; चौदह पूर्वो का अध्ययन किया। चार घातीकर्मों का क्षय होने से केवलज्ञान प्राप्त किया। अतः वे अंत में समस्त कर्मों का क्षय करके मोक्ष पहुँचे। 248