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________________ श्री उपदेश माला गाथा १४६ स्वजन भी अनर्थकर, पिता कनककेतु राजा की कथा आज्ञाभङ्गो नरेन्द्राणां गुरूणां मानमर्दनम् । पृथक् शय्या च नारीणामशस्त्रवध उच्यते ।।१२३।। अर्थात् - राजाओं की आज्ञा भंग करना, गुरुओं का मान-मर्दन करना और स्त्रियों की शय्या पृथक् करनी, बिना किसी हथियार के ही उनका वध करने के समान कहलाता है ॥१२३।। पति के द्वारा अपमानित और पीड़ित पोट्टिला दान-धर्मादि कार्यों में विशेष रूप से अपना समय बिताने लगी। उन्हीं दिनों उसके यहाँ एक दिन सुव्रता नाम की साध्वी भिक्षा के लिए पधारी। पोट्टिला ने बड़े आदरभाव से साध्वी को आहार दिया। उसके पश्चात् हाथ जोड़कर वह साध्वी से कहने लगी-"भगवती! कोई ऐसा उपाय बताइये, जिससे मेरा पति मेरे वश में हो जाय। मैं बड़ी दुःखिया हूँ। पति ने मुझे तिरस्कृत करके छोड़ रखी है। आप परोपकारी है। परोपकार करना महापुण्यवर्द्धक है।" कहा भी है दो पुरिसे धरइ धरा, अहवा दोहिं वि धारिया धरणी। ___ उवयारे जस्स मई, उवयारो जो न विसरइ ।।१२४|| अर्थात् - इस पृथ्वी ने दो पुरुषों को धारणकर रखा है; अथवा दो पुरुषों द्वारा पृथ्वी धारण की हुई है-१. एक तो वह, जिसकी बुद्धि उपकार में संलग्न है, २. दूसरा वह, जो किसी के किये हुए उपकार को भूलता नहीं है ॥१२४॥ पोट्टिला की बात सुनकर साध्वी सुव्रताजी ने कहा--"भद्रे! यह तुम कैसी बात कर रही हो? कुलिन स्त्रियों को वशीकरण जैसी हीनप्रवृत्ति करना उचित नहीं है। क्योंकि मंत्र आदि निकृष्ट उपायों से कामवासना की लालसा से पति को वश में करना महान् दोष का कारण है। और फिर हम तो महाव्रतधारिणी सर्वविरति चारित्र ग्रहण की हुई साध्वियाँ हैं; हमारे लिये मारण-मोहन-उच्चाटनादि मंत्रों का प्रयोग करना सर्वथा वर्जनीय है। तुम चाहती तो सुख ही हो न! तो फिर वास्तविक सुख के कारणों को छोड़कर पति को वश में करके किम्पाकफल के समान परिणाम में दारुण दुःख देने वाले सुखाभासरूप कामभोग के सुखों को क्यों अपनाना चाहती हो? सुख के भरोसे इन विषय-भोगों का चिरकाल तक सेवन करने पर भी मनुष्य तृप्त नहीं होता। अंत में, दुःख ही पल्ले पड़ता है। इसीलिए सच्चे सुख के मूल वीतरागदेव द्वारा कथित शुद्धधर्म का आचरण करो। जिससे तुम इस लोक और परलोक दोनों लोक में सुख प्राप्ति कर सकोगी।" साध्वीजी की बात पोट्टिला के गले उतर गयी। उसने साध्वीजी की बात स्वीकार की और पति से आज्ञा प्राप्त कर उनके पास भगवती दीक्षा अंगीकार की। दीक्षाग्रहण करते समय पति ने क्रोध रहित होकर - 247
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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