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________________ श्री उपदेश माला गाथा १४६ स्वजन भी अनर्थकर, पिता कनककेतु राजा की कथा में और कहीं प्रकट रूप में घूमते और नये-नये दृश्यों को देखते हुए सौ वर्षों तक परिभ्रमण करते रहे। इस दौरान ब्रह्मदत्त ने अनेक स्त्रियों के साथ विवाह कर लिया था। अंत में काम्पिल्यपुर पहुँच कर उन्होंने दीर्घराजा को सदा के लिए दीर्घनिद्रा में सुलाकर अपना राज्य ग्रहण किया। इसके बाद ब्रह्मदत्त ६ खंडों का दिग्विजय कर बारहवाँ चक्रवर्ती बना। एक दिन ब्रह्मदत्त राजसिंहासन पर बैठा था; तभी उसने एक फूलों का गुच्छा देखा। उसको टकटकी लगाकर देखते-देखते उसे जातिस्मरण ज्ञान हो गया। पूर्वजन्म के भाई चित्र का जीव साधुरूप में उसे प्रतिबोध देने के लिए वहाँ आया; लेकिन कठोर ह र- हृदय ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती को उसका एक भी प्रतिबोध न लगा। जब जिंदगी के १६ वर्ष बाकी थें, तभी एक दिन एक ग्वाले ने चक्रवर्ती की आँखें फोड़ दी। भ्रम से ब्रह्मदत्त इसे किसी ब्राह्मण की ही करतूत जानकर उस दिन से अपने राज्य में जितने भी ब्राह्मण थें, उनकी क्रमशः आँखें निकलवाने लगा। इस महारौद्रध्यान के क्रूर परिणामों के कारण अनेक अशुभकर्मों का संचय करके सात सौ वर्षों का आयुष्य बिताकर ब्रह्मदत्त सातवीं नरक के अप्रतिष्ठान नामक नरकावास में उत्कृष्ट स्थिति वाला नारक बना। इसकी विस्तृत घटना जानना चाहें वे 'उवएससहस्सेहिं' इस ३१वीं गाथा के अंतर्गत दी गयी कथा से जान लें। 1 माता का स्नेह भी अत्यंत स्वार्थपूर्ण और कृत्रिम होता है। इसलिए सांसारिकजनों के स्वार्थी स्नेह का विश्वास नहीं करना चाहिए । यही इस कथा का सारभूत उपदेश है || १४५॥ सव्यंगोवंगविगत्तणाओ, जगडणविहेडणाओ य । कासी य रज्जतिसिओ, पुत्ताण पिया कणयकेऊ ॥१४६॥ शब्दार्थ - राज्य के लोभ में अंधा बना हुआ पिता कनककेतु अपने पुत्रों के सभी अंगोपांगों का विविध प्रकार से छेदन करवा डालता था। ताकि वह राज्याभिषेक के योग्य न रहे। अतः पिता का पुत्रों के साथ संबंध भी कृत्रिम और स्वार्थपूर्ण है ।।१४६।। कनककेतु का चरित्र विस्तृत रूप से यहाँ दिया जा रहा है कनककेतु राजा की कथा तेतलीपुर नगर में उन दिनों कनककेतु राजा का राज्य था। उसकी पटरानी का नाम पद्मावती था। राजा के मंत्री का नाम तेतलीपुत्र था। पोट्टिला नाम की अत्यंत 1. अन्य कथा में चूलणी का भागना और साध्वी से प्रतिबोध पाकर दीक्षा लेने का वर्णन आता है। 245
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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