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स्वजन भी अनर्थकर, चूलणी रानी की कथा श्री उपदेश माला गाथा १४५ रही है। परंतु मुझे ऐसा उपाय करना चाहिए, जिससे ब्रह्मदत्त की रक्षा हो सके।' मंत्री ने मन ही मन उपाय सोचकर दीर्घराजा से कहा-'राजन्! अब मैं काफी बूढ़ा हो गया हूँ, अतः आपकी आज्ञा हो तो कुछ दिनों के लिए तीर्थयात्रा कर आऊं। मेरा पुत्र वरधनु आपकी सेवा में रहेगा।' यह सुनकर दीर्घराजा विचार में पड़ गया'अगर यह मंत्री कहीं दूर चला गया तो कुछ न कुछ अनिष्ट करेगा या हमें बदनाम करेगा। इसीलिए इसे पास रखना ही अच्छा है।' अतः दीर्घराजा ने मंत्री से कहा"मंत्रीवर! तीर्थयात्रा करने का आपका क्या प्रयोजन है? और यदि तीर्थगमन करना ही है तो पास में ही तीर्थस्वरूप गंगा नदी है। उसके किनारे जो दानशाला है, वहीं आनंद से रहिए और दानधर्म का आचरण करिए। दूर जाने से क्या लाभ है?" धनुमंत्री ने दीर्घराजा की बात मान ली और गंगा के किनारे आकर दानशाला संभाल ली। वहाँ रहते-रहते धनुमंत्री ने गंगातट से लाक्षागृह तक दो कोस लम्बी एक सुरंग गुप्तरूप से खुदवाई; और अपने पुत्र वरधनु के द्वारा पुष्पचूल राजा को यह संदेश कहलवाया कि 'आज ब्रह्मदत्त के शयनगृह में अपनी पुत्री के बदले किसी रूपवती दासी को समस्त आभूषणों से सुसज्जित करके भेजना।' राजा पुष्पचूल ने वैसा ही किया। जब अलंकारों से जगमगाती रूपराशि दासी वहाँ पहुंची तो ब्रह्मदत्त ने उसे ही अपनी प्राणप्रिया समझी और उसे व अपने मित्र वरधनु को साथ लेकर वह अपने शयनगृह में पहुंचा। वरधनु ने उसी समय शृंगारकथा कहनी शुरू की, जिसमें रसमग्न होकर सुनने में ब्रह्मदत्त को इतना आनंद आ रहा था कि उसे नींद आयी। आधीरात को जब सारे ही आदमी सोये हुए थे, तब सहसा चूलणी रानी ने वहाँ आकर लाक्षागृह में आग लगादी; उसे धांयधांय जलते देख ब्रह्मदत्त हड़बड़ाकर उठा और वरधनु से कहने लगा-"मित्र! बड़ी मुसीबत आ पड़ी है; बोलो, अब क्या किया जाय?" वरधनु बोला-"मित्र! घबराओ मत। चिन्ता न करो। देखो, तुम जहाँ बैठे हो, वहीं लात मारो।' ब्रह्मदत्त ने ज्यों ही उस जगह पर पादप्रहार किया कि तुरंत सुरंग का द्वार खुल पड़ा। दोनों मित्र उस दासी को वहीं सोती हुई छोड़कर सुरंग के मार्ग से भागे। जहाँ सुरंग का आखिरी सिरा आया, वहाँ मंत्री ने दो हवा से बातें करने वाले घोड़े जीन कसे हुए तैयार रखे थे। दोनों मित्र घोड़ों पर बैठकर वहाँ से नौ दो ग्यारह हुए। कोई ५० योजन वे पहुँचे होंगे कि दोनों घोड़े थक कर चूर-चूर हो गये थे। अतः दोनों ने वहीं दम तोड़ दिया। अतः दोनों मित्र वहाँ से पैदल चलकर कोष्ठक नगर में पहुँच गये। वहाँ एक ब्राह्मण ने उन्हें परदेशी व कुलीन अतिथि जानकर भोजन कराया और ब्रह्मदत्त के साथ अपनी पुत्री का विवाह कर दिया। उसके पश्चात् वे दोनों मित्र अनेक गाँवों और शहरों में कहीं गुप्त रूप 244