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________________ श्री उपदेश माला गाथा १४५ स्वजन भी अनर्थकर, चूलणी रानी की कथा 4 तरह ब्रह्मदत्त ने एक हंसनी के साथ बगुले का संगम करवा कर जनसमूह के सामने पहले की तरह जोशीले शब्दों में कहा। इससे दीर्घराजा ने अत्यंत भयाकुल होकर चूलणी से फिर कहा-' - "तुम्हारे पुत्र की चेष्टा हंसी में उड़ाने लायक नहीं है। हम दोनों के गुप्त सम्बन्ध का उसे पता लग गया है। अतः अब हम दोनों का बेखटके संगम होना कठिन है। इसीलिए तूं अपने पुत्र को मार दे, ताकि फिर हम निःशंक होकर विषयरस का आनंद लूट सकें। " चूलणी अपने हाथ से ऐसे अकार्य करने का नाम लेते ही कांप उठी। उसके मन में झिझक थी, अपने हाथ से पाले हुए पुत्र को मारने में! नीतिकारों ने इसे सर्वथा अनुचित भी बताया है'विषवृक्षोऽपि संवर्द्धय स्वयं छेत्तुमसाम्प्रतम्' (विषवृक्ष को भी बड़ा करके अपने ही हाथ से काट डालना अनुचित है ) । चूलणी के झिझकभरे विचार सुनकर दीर्घराजा ने साफ कह दिया- 'यदि तुम अपने पुत्र को खत्म नहीं करती तो तुम्हारा - मेरा आज से सम्बन्ध समाप्त !' चूलणी ने अपने हृदय को पत्थर-सा कड़ा बनाकर सोचा- 'हमारे विषयसुख में रुकावट डालने वाला यह पुत्र भी किस काम का ? इसे तो मार ही डालना ठीक है। पर मारना ऐसे सिफ्त से है कि "साँप भी मर जाय और लाठी भी न टूटे; पुत्र भी मर जाय और मेरा यश भी सुरक्षित रहे।' सचमुच, " धिगस्तु विषयविलसितम् " विषयविलास अनर्थकारी है। वह मनुष्य को अंधा बना देता है। कहा भी है दिवा पश्यति नो घूकः काको नक्तं न पश्यति । अपूर्वः कोऽपि कामान्धो दिवा नक्तं न पश्यति ॥१२२॥ अर्थात् - उल्लू दिन में नहीं देख सकता और कौआ रात में नहीं देख • सकता। परंतु कामान्ध तो एक अनोखा ही अंधा है, जो न दिन में देखता है और रात में देखता है ॥ १२१ ॥ चूलणी रानी ने मन ही मन युक्ति सोच ली कि 'अपने पुत्र की बड़े धूमधाम से शादी करके उसे लाक्षागृह बनाकर रहने के लिए दे दूं। जब सभी सोये हों तभी मौका पाकर उसमें आग लगा दूं जिससे सभी जलकर भस्म हो जायेंगे। इससे मेरी निंदा भी नहीं होगी और काम भी बन जायगा। उसने शीघ्र ही अपने सेवकों को आदेश देकर लाख का एक खूबसूरत आलीशान महल बनवाया। उस पर ऐसी खूबी से चूने की सफेदी करवा दी कि किसी को लाख के होने का संदेह न हो। तत्पश्चात् उसने ब्रह्मदत्त की शादी पुष्पचूलराजा की कन्या के साथ बड़े धूमधाम से कर दी। धनुमंत्री ने जब यह हाल देखा तो वह भांप गया कि 'इसमें कहीं न कहीं दाल में काला है। यह पापिनी अपने पुत्र को मारने का षडयंत्र रच 243 .
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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