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________________ स्कन्दककुमार मुनि की कथा, निःस्नेही बनना श्री उपदेश माला गाथा १४२-१४३ दुःख से भर आया। उसने जब रानी को दुःखितहृदय से जब वह समाचार सुनाये तो वह मुक्त कण्ठ से रुदन करने लगी- "हे मेरे सहोदर! मेरे बंधु! मेरे भाई! वीर! यह तेरा क्या हाल हो गया? तूं तो मुझे प्राणों से भी अधिक प्रिय था! यह क्या किया तूंने? तूंने तो मुनि बनने के बाद अपना हालचाल तक भी न बताया और न ही दर्शन दिया! वास्तव में तूंने इस भूमि पर विचरण करके इसे तीर्थ रूप बना दिया। मैं ही अभागिनी और महापापिनी हूँ कि मैंने तुम्हारी ओर एकटक दृष्टि से देखा और वही तुम्हारी हत्या का कारण बना। भाई! अब मैं कहाँ जाऊंगी? क्या करूंगी? मेरा जन्म कैसे सार्थक होगा?" इस प्रकार सुनंदा जोर-जोर से विलाप करने लगी। राजा को असलियत का पता लगने पर उसे भी पश्चात्ताप हुआ। उसने तथा मंत्रियों ने शोकमग्न रानी का मनोरंजन करके शोक भूलाने के लिए अनेक प्रकार के नाटकों का आयोजन कराया, जिससे काफी लम्बे अर्से के बाद रानी का शोक दूर हुआ। अन्य मुनियों को भी स्कन्दक मुनि की तरह निर्मोहिता और समता धारण करनी चाहिए, यही इस कथा का मूल उपदेश है ॥१४१।। गुरु-गुरुतरोय अइगुरु, पिय-माइ-अवच्च-हियजणसिणेहो । चिंतिज्जमाण गुविलो, चत्तो अइधम्मतिसिएहिं ॥१४२॥ शब्दार्थ - माता, पिता, पुत्र आदि प्रियजनों पर क्रमशः अधिक, अधिकतर और अधिकतम स्नेह बढ़ता जाता है। अत्यंत धर्मपिपासु साधकों ने इस स्नेह को अनंत जन्मों का कारण जानकर धर्म के शत्रु रूप इस स्नेह का त्याग किया है। इसीलिए धर्माभिलाषी साधक प्रियजन आदि के स्नेह (आसक्ति) में न पड़कर धर्म की आराधना करें ।।१४२।। अमुणियपरमत्थाणं, बंधुजणसिणेहवड्यरो होड़ । अवगयसंसारसहावनिच्छयाणं समं हिययं ॥१४३॥ शब्दार्थ -जिन्होंने परमार्थ का स्वरूप नहीं जाना, उन्हें ही अपने गृहस्थपक्ष के भाई-बन्धु और कुटुम्ब-कबीले पर अत्यधिक स्नेहराग (आसक्ति) होता है। जिन्होंने निश्चयपूर्वक संसार के स्वभाव को जान लिया है, उनका हृदय सब पर सम रहता है ।।१४३॥ भावार्थ - संसार का स्वरूप यथार्थ रूप से नहीं जानने वाला मूढ़मति साधक ही स्वजनों के स्नेहपाश (आसक्ति के जाल) में फंसता है। परंतु बुद्धिमान और संसार का स्वरूप सम्यक् प्रकार से जानने वाला साधक 240 -
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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