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________________ श्री उपदेश माला गाथा १४४-१४५ श्रावकोपदेश, स्वजन भी अनर्थकर, चूलणी रानी की कथा सांसारिक (गृहस्थ्य) संबंध छोड़कर पुनः उसमें नहीं फंसता। उसके हृदय में अपने (कुटुम्ब कबीले वाले) या पराये सबके प्रति समानता रहती है। शत्रु हो या चाहे मित्र सर्वत्र वह सम रहता है। उसके हृदय में राग द्वेष (आसक्ति घृणा) या पक्षपात किसी के प्रति नहीं होता। इसीलिए बंधुजनों का स्नेह उसके प्रतिबंधकारक नहीं होता ।।१४३।। श्रावक उपदेश माया पिया य भाया, भज्जा पुत्ता सुही य नियगा य । इह चेव बहुविहाई, करंति भय-वेमणस्साई ॥१४४॥ शब्दार्थ- माता, पिता, भ्राता, भार्या, पुत्र, मित्र और स्वजन ये सब इस संसार में प्रसंगवश अनेक प्रकार के भय (मरणांत डर) और वैमनस्य (मन मुटाव) पैदा कर देते हैं ।।१४४॥ सांसारिक जनों का स्नेह कितना अनर्थकर और कृत्रिम होता है, इसे आगे की गाथाओं में क्रमश: बताते हैं माया नियगमविगप्पियंमि, अत्थे अपूरमाणंमि । पुत्तस्स कुणइ वसणं, चुलणी जह बंभदत्तस्स ॥१४५॥ शब्दार्थ - माता भी अपने दिमाग में सोची हुई बात पूरी न होने पर अपने पुत्र को तकलीफ देती है; जैसे चूलनी रानी ने ब्रह्मदत्त को अनेक कष्ट दिये थे।।१४५।। भावार्थ - 'दूसरे राजा के साथ कामवासना में फंसी हुई चूलनी रानी ने · अपने पुत्र ब्रह्मदत्त को, जो भविष्य में चक्रवर्ती होने वाला था, उसका अनिष्ट करने की बुद्धि से प्राणांत कष्ट तक दिया था, तो फिर दूसरे का तो कहना ही क्या?' प्रसंगवश यहाँ चूलणी रानी की कथा दे रहे हैं चूलणी रानी की कथा काम्पिल्यपुर में ब्रह्म नामक राजा था। उसकी रानी का नाम चूलणी था। उसने एक बार १४ स्वप्न देखे। क्रमशः ९ मास बाद उसके एक सुंदर पुत्र हुआ; जिसका नाम ब्रह्मदत्त रखा गया। ब्रह्म राजा के ४ मित्र नृप थे-पहला कुरुदेश का राजा कणेरदत्त, दूसरा काशीनरेश कटकदत्त, तीसरा कौशलेश दीर्घ राजा और चौथा अंगदेशाधिपति पुष्पचूल। इन पांचों में परस्पर गाढ़ मैत्री थी। उन्हें क्षणभर के लिए भी एक दूसरे का वियोग असह्य हो जाता था। ये पांचों प्रतिवर्ष क्रमशः एक-एक 241
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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