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________________ श्री उपदेश माला गाथा १४१ स्कन्दककुमार मुनि की कथा, निःस्नेही बनना आभूषण भारभूत है और सभी शब्दादि काम परिणाम में दुःख देने वाले हैं ॥१२१।। इस प्रकार आचार्यश्री का उपदेश सुनकर स्कन्दककुमार को वैराग्य हो गया और उसने अपने मातापिता से अनुरोध करके दीक्षा लेने की अनुमति प्राप्त कर श्री विजयसेनसूरिजी के पास संयम ग्रहण किया। राजा भी अतिस्नेहवश उसी दिन से मुनि बने हुए अपने पुत्र पर श्वेतछत्र धारण किये रखने के लिए सेवक को नियुक्त किया तथा उनकी सेवा में परिचर्या के लिए कुछ नौकर रख दिये। वे रास्ते में पड़े हुए कांटे-कंकरों को साफ कर देते और परम भक्ति से उनकी सेवा करते थे। समय पाकर मुनि स्कन्दककुमार समस्त सिद्धांत समुद्र के पारगामी बनें; और गुरुआज्ञा से जिनकल्पी मार्ग स्वीकार करके एकाकी विहार करने लगे। उनका अत्यंत उग्रविहार देखकर सभी नौकर वापिस लौट गये। विहार करते-करते एक दिन वे कांतिपुर में पधारें। महल के झरोखे में बैठी सुनंदा ने, जो अपने पति के साथ चौसर (शतरंज) खेल रही थी, राजमार्ग पर जाते हुए मुनि को देखा। देखते ही उसके मन में अत्यंत आनंद हुआ, उसकी आँखों में हर्षाश्रु उमड़ पड़े, वर्षा से प्रफुल्लित कदम्बपुष्प के समान उसकी रोमराजि खिल उठी। वह सोचने लगी- 'यह मेरा भाई तो नहीं है?' गौर से देखने पर उसने स्कन्दक मुनि को पहिचान लिया। अब तो और अधिक स्नेह उमड़ा। मगर मुनि को (भ्राता) अपनी बहन पर जरा भी आसक्ति न हुई। राजा को भाई-बहन के स्नेहसम्बन्ध की जानकारी न होने से रानी को अचानक अन्यमनस्क देखकर सोचा- "सुनंदा का इस साधु के प्रति अत्यंत राग (मोह) मालूम होता है।" अतः राजा ने आगा-पीछा कुछ भी न सोचकर कायोत्सर्ग में खड़े हुए स्कन्दकऋषि को रातोरात दुर्बुद्धि पूर्वक मरवा डाला। प्रातःकाल खून से लाल बनी हुई मुंहपत्ती को किसी पक्षी ने चोंच में उठाई और रानी के महल के आंगन में डाल दी। उस मुंहपत्ती को देखते ही रानी को शंका हुई कि कहीं "यह मुंहपत्ती किसी साधु की तो नहीं है!" रानी ने इस विषय में दासी से पूछा तो उसने कहा- 'कल आपने जिस साधु को देखा था, रात को उसे किसी पापी ने मार दिया है। उसीकी यह मुखवस्त्रिका दिखती है।" यह सुनते ही रानी वज्राहत की तरह जमीन पर गिर पड़ी और मूर्छित हो गयी। शीतल-उपचार के बाद जब वह होश में आयी तो अगर यह साधु मेरा भाई निकला तो मैं क्या करूंगी? क्योंकि मेरे भाई ने मुनि दीक्षा ली है, ऐसा मैंने सुना था। कल उस साधु को देखकर भी मुझे बंधुदर्शन जैसा आनंद हुआ था। उसने अपने मुनि बने हुए भ्राता का पता लगाने के लिए एक सेवक को अपने पिता के पास भेजा। उसने वहाँ जाकर सारी घटना यथार्थ रूप से सुनी तो उसका हृदय भी 239
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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