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________________ श्री उपदेश माला गाथा १२२ भोगासक्ति का फल द्रमक का दृष्टांत तक श्रावक पर्याय का पालन किया। जिंदगी के अंतिम दिनों में एक मास का संलेखना संथारा (अनशन) करके सर्व पाप-दोषों की अच्छी तरह आलोचना प्रतिक्रमण करके शुद्ध होकर प्रसन्नता पूर्वक शरीर छोड़कर वह परलोक विदा हुआ। वहाँ सौधर्म देवलोक में अरुण नामक विमान में ४ पल्योपम की आयु वाला देव हुआ। वहाँ से आयुष्य पूर्ण कर कामदेव का जीव महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होगा। जिस प्रकार कामदेव ने श्रावक होते हुए भी भयंकर उपसर्ग सहन किये, उसी तरह मोक्षार्थी साधकों-मुनियों को भी सहन करने चाहिए, यही इस कथा की मूल प्रेरणा है ॥१२१॥ भोगे अभुंजमाणा वि, केड़ मोहा पडंति अहोगई (अहरगइं) । ___ कुविओ आहारथी, जत्ताइ-जणस्स दमगुव्य ॥१२२॥ शब्दार्थ - कई जीव सांसारिक इन्द्रियजन्य विषयों का उपभोग नहीं कर पाते; लेकिन मूढ़तावश दुश्चिन्तन करके अधोगति में जाकर गिरते हैं। जैसे यात्रा के लिए वन में आये हुए पौरजनों ने जब आहारार्थी द्रमक (भिक्षुक) को भोजन नहीं दिया तो उन पर कोपायमान होकर अपना पतन कर लिया था ।।१२२ ।। ___ भावार्थ - इच्छित भोगों की प्राप्ति न होने पर भी कई द्रमक जैसे मूढ़ात्मा अज्ञान और मोह से प्रेरित होकर अपनी आत्मा को न कोसकर निमित्तों (दूसरों) पर क्रोध करके मन से दुर्ध्यान वश दुर्गति को प्राप्त कर लेते हैं। यानी अपने हाथों अपने जीवन को दुर्गतिगामी बना लेते हैं। प्रसंगवश यहाँ द्रमक का उदाहरण दिया जा रहा है क्रमक का दृष्टांत राजगृह नगर में एक बार कोई उत्सव था। उसे मनाने के लिए सभी लोग वैभारगिरि पर जमा हुए। उन दिनों उसी नगर में द्रमक नामक एक भिक्षुक आया हुआ था। उसे कड़ाके की भूख लगी थी, इसीलिए झोली उठाकर नगर में भिक्षा के लिए चल पड़ा। काफी देर तक घूमने पर भी घर बंद होने के कारण उसे कहीं आहार नहीं मिला तो वह वन में पहुँचा। वहाँ भी वह कई जगह घूमा; पर अंतरायकर्म के उदय के कारण कहीं भी उसे आहार न मिला, किसी ने उसे भिक्षा लेने के लिए नहीं कहा। फलतः वह भिक्षुक तिलमिला उठा और क्रोध से आगबबूला होकर सोचने लगा-"कितने दुष्ट है यहाँ के लोग! वे स्वयं इच्छानुसार भोजन बनाते हैं, खाते-पीते भी हैं, मगर मुझे किसी ने भोजन नहीं दिया। अतः - 227
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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