SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 255
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्रमक का दृष्टांत श्री उपदेश माला गाथा १२३ इन्हें मैं वैभारगिरि पर चढ़कर वहाँ से एक बड़ी शिला इन स्वार्थमग्न दुष्टों पर गिराकर इन्हें चकनाचूर कर दूं और इन्हें अपने किये का मजा चखा दूं।" इस प्रकार रौद्रध्यानवश झल्लाता हुआ वह वैभारगिरि पर चढ़ा और एक बड़ी शिला उठाकर वहाँ से नीचे गिरा दी। शिला गिरती देखकर लोग इधर-उधर दूर भाग गये। दुर्भाग्य से वही भिक्षुक अचानक गिरती हुई शिला के नीचे आकर उसके वजन से दब गया; जिससे उसका शरीर एकदम चकनाचूर हो गया। रौद्रध्यानवश मरने के कारण वह सातवीं नरकभूमि में पहुँचा। सचमुच मन की गति-प्रवृत्ति बड़ी बलवती होती है। कहा भी है मनोयोगो बलीयांश्च भाषितो भगवन्मते । य: सप्तमी क्षणार्द्धन नयेद्वा मोक्षमेव च ॥११८॥ अर्थात् - भगवान् के मत में सभी योगों (मन-वचन-काया के व्यापारों) . में मन का योग बड़ा बलवान् बताया गया है। जो मनोयोग अपने बल से आधे क्षण में या तो सातवीं नरक की यात्रा करा देता है अथवा मोक्ष में पहुँचा देता है।।११७।। अनुभवियों ने बताया है मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः ।। यथैवालिङ्ग्यते भार्या तथैवालिङ्ग्यते स्वसा ॥११९।। अर्थात् - मनुष्यों के कर्मबंध और कर्मों से मुक्ति का कारण मन ही है। मनुष्य जिस प्रकार अपनी पत्नी का आलिंगन करता है, उसी प्रकार बहन से मिलते समय उसका आलिंगन करता है। दोनों जगह क्रिया एक-सी होने पर भी मन की भावना का अंतर है ॥११९।। जिस तरह उस द्रमक ने मन के द्वारा रौद्रध्यान करके नरक का दुःख पाया, वैसे ही अन्य जीव भी व्यर्थ ही भोगेच्छाएँ या स्वार्थपूर्ति की लालसाएं करके नरक के दुःखों को प्राप्त करता है। इसीलिए साधक को मन से भी भोग की इच्छा नहीं करनी चाहिए; यही इस कथा का सारभूत उपदेश है ॥१२२॥ भवसयसहस्स दुलहे, जाइ-जरा-मरणसागरुत्तारे । जिणवयणमि गुणायर! खणमवि मा काहिसि पमायं ॥१२३॥ अर्थात् - गुणनिधे! लाखों जन्मों में भी अतिदुर्लभ और जन्म, मृत्यु और बुढ़ापे के दुःख-समुद्र से पार उतारने वाले जिनवचन को पाकर क्षणभर भी प्रमाद न कर ।।१२३।। विषय, कषाय और विकथादि प्रपंचों को छोड़कर एकमात्र वीतराग के सिद्धान्त की आराधना में लग जा। 228
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy