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________________ कामदेव श्रावक की कथा श्री उपदेश माला गाथा १२१ __ इतनी भयंकर कसौटी कर लेने पर भी जब कामदेव श्रावक चलित न हुआ तो देव ने अपनी हार मानी और उसे शुभध्यान परायण जानकर वह अपने असली रूप में कामदेव के पास आया और क्षमायाचना करने लगा। देव ने कामदेव की प्रशंसा करते हुए कहा- "धर्मधुरंधर कामदेव! धन्य है तुम्हें! तुम बड़े पुण्यशाली हो, धर्म में सुदृढ़ हो, सचमुच तुमने मानव जीवन का सुफल प्राप्त कर लिया है। सौधर्मेन्द्र ने जिस रूप में अपने मुख से आपकी प्रशंसा की थी, वैसे ही रूप में आपको मैंने पाया मेरी श्रद्धा उस समय इन्द्र के वचनों पर न हुई और मैं आपकी परीक्षा लेने के लिए आया था। तुम परीक्षा में पूर्णतया उत्तीर्ण हुए हों।" इस प्रकार उस धर्मात्मा की प्रशंसा और स्तुति करके देव अपने स्थान पर वापिस लौट गया। प्रात:काल होने पर कामदेव ने कायोत्सर्ग और पौषध पारित किये। और समवसरण के योग्य वस्त्रादि पहनकर भगवान् महावीरस्वामी के दर्शनार्थ गया। भगवान् ने कामदेव से पूछा- "देवानुप्रिय कामदेव! तुम्हें आज आधी रात को किसी देव ने तीन उपसर्ग दिये थे, क्या यह बात सच है?" कामदेव बोला"आपकी बात सोलह आने सत्य है, भगवन्!" उसके पश्चात् भगवान् ने समस्त साधु साध्वियों को बुलाकर कहा-"आयुष्मन्तो! जब कामदेव जैसे श्रमणोपासक ने श्रावकधर्म पर अत्यंत दृढ़ रहकर देवकृत उपसों को समभाव से सहन किया है तो श्रुतशीलधर आगमवेत्ता महाव्रती साधुओं को तो अपने धर्म पर दृढ़ रहकर समभाव से उपसर्गों को सहना ही चाहिए।" भगवान् के ये अमृतवचन सब साधु साध्वियों ने श्रद्धा पूर्वक सुनकर शिरोधार्य किये। और ये उद्गार निकाले-'धन्य है कामदेव की आत्मा को 'जिसकी प्रशंसा स्वयं भगवान् ने अपने श्रीमुख से की है।' कहा भी है धन्ना ते जीअलोए गुरवो निवसंति जस्स हिययंमि । धन्नाणवि सो धन्नो, गुरूणा हियए वसइ जोउ ॥११७।। अर्थात् - इस जीवलोक में वे पुरुष धन्य है, जिनके हृदय में गुरुदेव बसे हुए हैं और वह तो सभी धन्यभागियों से भी बढ़कर धन्य है, जो गुरुदेव के हृदय में बसा हुआ हैं ॥११७।। इस तरह साधु साध्वियों तथा अन्य लोगों के मुंह से अपनी प्रशंसा सुनकर भी तटस्थ कामदेव श्रावक भगवत् कृपा परवश होकर भाव-भक्ति पूर्वक भगवान् को वंदना-नमस्कार करके अपने घर आया। उसके पश्चात् उसने श्रावक की दर्शन आदि ११ प्रतिमाओं की भलीभांति आराधना की और २० वर्ष 226
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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