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________________ श्री उपदेश माला गाथा १२१ कामदेव श्रावक की कथा उसकी फुफकारती हुई लपलपाती दो जिह्राएँ कायर व्यक्ति के हृदय में कंपकंपी पैदा करने वाली थी। फुफकारता हुआ वह कामदेव के पास आकर बोला-"अरे कामदेव! ग्रहण किये हुए तेरे व्रत को झटपट छोड़ दे, अन्यथा देख ले, इसी समय तेरे शरीर को मैं अपनी जहरीली दाढ़ से डसकर इतना विषैला बना दूंगा कि फौरन तूं अकाल में ही कालकवलित हो जायगा।" इतना कहने पर भी कामदेव बिलकुल भयभीत नहीं हुआ। उसने सोचा-'चाहे शरीर के टुकड़े-टुकड़े हो जाय, या अकाल में ही यह छूट जाय, परंतु मैं अपने धर्म (व्रत-नियम रूप) को बिलकुल नहीं छोडूंगा। शरीर तो फिर भी मिल जायगा, परंतु धर्म एक बार नष्ट हो जाने के बाद मिलना बहुत ही दुर्लभ है। इसीलिए मैं अपने श्रावकधर्म के स्वीकृत व्रतों में जरा भी अतिचार (दोष) नहीं लगने दूंगा। क्योंकि जरा-से अतिचार से व्रत मलिन हो जाता है, महान् दोषयुक्त बन जाता है। कहा भी है अत्यल्पादप्यतिचाराद् धर्मस्यासारतैव हि । अघ्रिकटकमात्रेषु पुमान् पङ्ग्यते न किम्? ||११४।। अर्थात् - 'थोड़ से अतिचार (दोष लगने) से धर्म में निःसारता आ ही जाती है; पैर में एक कांटे के चुभने मात्र से क्या वह मनुष्य को लंगड़ा नहीं कर देता? सचमुच, व्रतों में भी इसी तरह लंगड़ापन आ जाता है।'॥११४।। मगर देव ने इतने पर भी सर्प के रूप में उसे डसा। इससे कामदेव के शरीर में अत्यंत पीड़ा होने लगी; कालज्वर हो जाने से भयंकर वेदना होने लगी। फिर भी वह टस से मस नहीं हुआ। अपने व्रत-नियम पर डटा रहा। ध्यान में अडिग रहा। उलटे, मन ही मन चिन्तन करता रहा खण्डनायां तु धर्मस्यानन्तैरपि भवैर्भवैः । दुःखान्तो भविता नैव गुणस्तत्र न कश्चन ॥११५।। अर्थात् – धर्म के खंडित कर देने से अनंत-अनंत भवों में परिभ्रमण करने पर भी दुःख का अंत नहीं होगा। इसीलिए धर्म को खंडित करने में कोई लाभ या विशेषता नहीं है ॥११५।। दुःखं तु दुष्कृताज्जातं तस्यैव क्षयतः क्षयेत् । सुकृतात्तत्क्षयश्च स्यात्, तत्तस्मिन् सुदृढ़ो न कः ॥११६।। • अर्थात् - और यह दुःख तो मेरे ही पूर्वकृत दुष्कृतों (अशुभकर्मों) के कारण हुआ है, इस दुःख का नाश इन दुष्कर्मों का नाश करने पर ही होगा। दुष्कृतों का नाश सुकृत. (धर्माचरण) से ही होगा। यह बात स्पष्ट जानकर कौन ऐसा व्यक्ति होगा, जो सुकृत (धर्म) पर दृढ़ न हो? ॥११६।। 225
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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