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________________ कामदेव श्रावक की कथा श्री उपदेश माला गाथा १२१ विचलित करके इन्द्र की वाणी को मिथ्या सिद्ध करने के लिए देवलोक से चलकर मर्त्यलोक में कामदेव श्रावक के पास आया। कामदेव उस समय पौषधशाला में पौषधव्रत लेकर कायोत्सर्ग में बैठा था। ठीक आधी रात के समय उस देवता ने विकराल राक्षस का रूप बनाया और हाथ में यमजिह्वा के समान चमचमाती तलवार लेकर पैर पछाड़ता और धरती को कंपाता हुआ, धमधमाता हुआ मुंह खोलकर भयंकर अट्टहास करता हुआ कामदेव के पास आया। और उससे कहने लगा'अरे कामदेव! इस धर्म के ढोंग को छोड़ दे। और इस कायोत्सर्ग का भी त्याग कर दे; नहीं तो, अभी इस तलवार से तेरे टुकड़े-टुकड़े कर दूंगा। जिससे तूं अकाल में ही मौत का मेहमान बन जायगा। जिंदा रहेगा तो सब कुछ कर सकेगा, सुखों का उपभोग कर जीवन का आनंद लूट सकेगा।" देव के द्वारा बार-बार इस प्रकार भयोत्पादक बातें कही जाने पर भी जब कामदेव जरा भी विचलित न हुआ तो देव को रोष पैदा हुआ। उसने कामदेव के शरीर पर तलवार चलाई, जिससे बड़ी भारी वेदना होने लगी। मगर कामदेव शरीर और आत्मा की पृथक्ता के विज्ञान का चिन्तन करता हुआ समभाव से सहता और निश्चल बैठा रहा। तत्पश्चात् देव ने एक पर्वत के समान विकराल मदोन्मत्त महाहाथी का रूप बनाया और अपनी सूंड उछालता हुआ कामदेव के पास आकर कहने लगा-"अरे धर्म के पूंछड़े! अब भी मान जा। इस झूठे धर्म के ढोंग को छोड़ दे। कायोत्सर्ग-मुद्रा का त्याग कर दे और मेरी बात मान। नहीं तो इस सूंड से तुझे आकाश में उछालकर जमीन पर पटकूगा और तीखे दांतों से तेरे शरीर के टुकड़े कर दूंगा।" जब इतना कहने पर भी कामदेव ध्यान से विचलित न हुआ तो हाथी रूप देव ने अपनी सूंड से कामदेव को उठाकर ऊपर उछाला और जमीन पर पटका, फिर तीखे दांतों से उसके शरीर को बींध दिया। मगर कामदेव चलायमान न हुआ। न मन में दुःखित हुआ। प्रत्युत दृढ़तापूर्वक मन में चिन्तन करने लगा सर्वेभ्योऽपि प्रिया: प्राणास्तेऽपि यान्त्वधुनाऽपि हि । न पुनः स्वीकृतं धर्म, खण्डयाम्यल्पमप्यहम् ।।११३।। अर्थात् - प्राण मनुष्य को सब चीजों से अधिक प्यारे होते हैं, वे चाहे अभी चले जाय, मगर मैं स्वीकृत् धर्म (व्रत-नियम) को लेशमात्र भी खण्डित नहीं करूँगा ॥११३।। देव इतनी ही कसौटी करके नहीं रह गया। तीसरी बार उसने एक महाभयंकर तीव्र विषधर सांप का रूप बनाया; जिसका शरीर मूसल-सा मोटा और काजल-सा काला था, और उसके फण फटाटोप से भयंकर बने हुए थे और 224
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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