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________________ श्री उपदेश माला गाथा १२१ देवोपसर्ग में अडिग कामदेव श्रावक की कथा 'अरिहंत देव, सुसाधु गुरु और जिनधर्म ये तीनों तत्त्व मुझे प्रमाण हैं; इत्यादि शुद्धभाव को जगद्गुरु तीर्थंकर सम्यक्त्व कहते हैं।' ॥१०९।। श्रावक के बारह व्रतों के १३८४ करोड, १२२७२०२ भेद-प्रभेद (भंग) होते हैं। इन सब भंगों में सम्यक्त्व प्रथम भंग है। सम्यक्त्व न हो तो इनमें से एक भी भंग का होना संभव नहीं। इस पर सम्यक्त्व का कितना महत्त्व है, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। इसीलिए कहा है मूलं दारं पइट्ठाणं, आहारो भायणं निहीं । दुछक्कस्सावि धम्मस्स सम्मत्तं परिकित्तियं ॥११०।। अर्थात् - १२ प्रकार के श्रावकधर्म का मूल, द्वार, प्रतिष्ठान (नीव), आधार, भाजन और निधि सम्यक्त्व को बताया गया है ॥११०।। अंतोमुत्तमित्तंपि फासिअं हुज्ज जेहिं सम्मत्तं । तेसिं अवड्डपुग्गलपरिअट्टो चेव संसारो ॥१११।। जं सक्कइ तं कीरई, जं न सक्कइ तयंमि सद्दहणा । सद्दहमाणो जीवो वच्चइ अयरामरं ठाणं ॥११२।। . . अर्थात् - केवल अंतर्मुहूर्त भर के लिए भी यदि सम्यक्त्व का स्पर्श कर लिया जाय तो उसका संसार अर्द्धपूद्गल-परार्वतनकाल तक का सीमित हो जाता है। इसीलिए व्रत आदि धर्माङ्गो का जितना आचरण हो सके करना चाहिए, यदि किसी व्रत का आचरण न हो सके तो उस पर श्रद्धा रखनी चाहिए। क्योंकि श्रद्धा करने वाला जीव भी उस अजरामर स्थान (मोक्ष) को प्राप्त कर लेता है।।१११-११२।। इसीलिए सम्यक्त्वमूलक द्वादश श्रावकव्रतों की जो सम्यग् आराधना करता है, वह इस लोक और परलोक में उत्तम फल प्राप्त करता है। इस प्रकार भगवद् वाणी सुनकर कामदेव के हृदय में अत्यंत आनंद हुआ। उसे श्रावकधर्म पर पूर्ण श्रद्धा पैदा हुई और भगवान् से उसने सम्यक्त्वमूलक श्रावक के १२ व्रत अंगीकार किये और जीव-अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञाता बनकर भलीभांति श्रावकधर्म का पालन करने लगा। ___ एक बार सौधर्म देवलोक के अधिपति इन्द्र ने कामदेव श्रावक की दृढ़धर्मिता की प्रशंसा की-"मर्त्यलोक में कामदेव श्रावक धर्म पर अत्यंत दृढ़ है। देव भी उसे चलायमान नहीं कर सकते। उसके धैर्य का क्या कहना? ऐसे श्रावकों के कारण मनुष्यलोक की शोभा है।" इन्द्र के मुख से कामदेव श्रावक की प्रशंसा एक मिथ्यादृष्टि देव को नहीं सुहाई। वह कामदेव श्रावक को अपने धर्म से 223
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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