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देवोपसर्ग में अडिग कामदेव श्रावक की कथा श्री उपदेश माला गाथा १२१ बांधकर उस पर धधकते अंगारे रखे और झटपट वहाँ से नौ दो ग्यारह हो गया। मगर सागरचन्द्र ने जलते अंगारों की असह्य वेदना होते हुए भी उफ तक न किया। उसे समभाव से सहन करके उसने मृत्यु का हंसते-हंसते स्वीकार किया। शुभध्यान में मरकर सागरचन्द्र देवलोक में गया।
जब श्रावकव्रती गृहस्थ ने भी घोर उपसर्ग को समभाव से सहा तो महाव्रती साधु को तो विशेष रूप से सहन करना ही चाहिए; यही इस कथा का सार है ॥१२०॥
देवेहिं कामदेवो, गिही वि नवि चाइओ तवगुणेहिं ।। __ मत्तगयंद-भुयंगम-रक्खसघोरट्टहासेहिं ॥१२१॥
शब्दार्थ - तप के गुण से युक्त कामदेव श्रावक को अपने व्रत-नियम से चलायमान करने के लिए इन्द्र के मुख से प्रशंसा सुनकर अश्रद्धाशील बने हुए देवों ने मदोन्मत्त हाथी, क्रूर सर्प और राक्षसों के भयंकर अट्टहास आदि प्रयोग किये, लेकिन वह गृहस्थ होकर भी जरा भी विचलित न हुआ ।।१२१।।
गृहस्थ श्रावक होते हुए भी कामदेव ने जब अपनी परीक्षा होने पर इतनी निश्चलता रखी तो मुनिराजों को तो निश्चलता रखने में कहना ही क्या? यहाँ प्रसंगवश कामदेव श्रावक की कथा दी जा रही है।
कामदेव श्रावक की कथा उन दिनों चम्पानगरी का राजा जितशत्रु था। उसी नगरी में कामदेव नाम का बहुत बड़ा व्यापारी रहता था। उसके पास १८ करोड़ स्वर्णमुद्राएँ तथा साठ हजार गायों के ६ गोकुल थे तथा धन धान्य आदि से वह सम्पन्न था। उसकी गृहिणी का नाम भद्रा था। एक बार चम्पानगरी में भगवान् महावीर स्वामी पधारें। कामदेव ने उनका उपदेश सुना। भगवान् ने अपने उपदेश में जीवादि नौ तत्त्वों का स्वरूप बताते हुए कहा- 'जो व्यक्ति वीतराग द्वारा प्ररूपित जीव-अजीव आदि तत्त्वों पर यथार्थ श्रद्धा कर लेता है, उसे दर्शन मोहनीय कर्म के क्षयोपशम या उपशम होने के कारण सम्यग्दर्शन प्राप्त हो जाता है। सम्यक्त्व प्राप्त हो जाने पर आत्मा में ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूपी रत्नत्रय-मोक्षमार्ग की ओर गति प्रगति करने की शुभ परिणति पैदा होती है। कहा भी है
अरिहंतो देवो गुरुणो सुसाहुणो जिणमयं महप्पमाणं ।
इच्चाइ सुहो भावो समत्तं बिंति जगगुरुणा' ।।१०९।। 1. तुलना : अरिहंतो महद्देवो जावज्जीव सुसाहूणो गुरुणो। जिणपन्नत्तं तत्तं इह समत्तं मए
गहि। 222