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________________ श्री उपदेश माला गाथा १२० सागरचन्द्रकुमार की कथा कमलामेला के प्रति स्नेहाकर्षण पैदा कर दिया। वहाँ से वे कमलामेला के यहाँ आये। कमलामेला ने नारदजी का अतिसत्कार करके उनसे पूछा-"कोई आश्चर्यजनक नई बात देखी सुनी तो हो तो कहिए।" नारदजी ने कहा-"दुनिया में आश्चर्यकारी चीजें तो बहुत-सी हैं; परंतु जैसा आश्चर्यजनक और अनुपम रूप सागरचन्द्र का है, वैसा इस पृथ्वी पर किसी का भी मेरे देखने में नहीं आया। नभसेन और उसके रूप तथा स्वभाव में रात-दिन का अंतर है। कमलामेला ने जब से नारदजी से सागरचन्द्र के रूप-गुण की प्रशंसा सुनी, तब से नभसेन के प्रति उसे विरक्ति होने लगी और सागरचन्द्र के प्रति अनुराग और आकर्षण बढ़ने लगा। वह यहीं सोचती रहती-'ऐसे मेरे भाग्य कहाँ कि सागरचन्द्र के साथ मेरा विवाह-संबंध हो। अब तो उसके बिना यह यौवन और यह शरीर व जीवन व्यर्थ है।' इधर सागरचन्द्र का यह हाल था कि वह भी कमलामेला की प्रशंसा सुनने के बाद मन ही मन रात-दिन उसी का ध्यान करने लगा, उसीके सपने देखने लगा। जैसे धतूरा खा लेने पर मनुष्य उसके नशे में चारों और सोना ही सोना देखा करता है, वैसे ही सागरचन्द्र को भी मोहरूपी धतूरे के नशे से सारा संसार कमलामेलामय दिखाई देने लगा। कहा भी है-...: प्रासादे सा दिशि-दिशि च सा पृष्ठतः सा पुरः सा, पर्यंके सा पथि-पथि च सा तद्वियोगातुरस्य । " हं हो! चेतः प्रकृतिरपरा नास्ति मे काऽपि सा सा, सा सा सा सा जगति सकले कोऽयमद्वैतवादः ॥१०४|| अर्थात् - कमलामेला के विरह में आतुर बने हुए सागरचन्द्र को महल में भी सर्वत्र कमलामेला दिखाई देती थी। प्रत्येक दिशा में भी वही, आगे भी वही, पीछे भी वही, पलंग पर भी वही, प्रत्येक मार्ग में भी वही नजर आती थी। अफसोस है, हे मेरे मन! यद्यपि मेरी प्रकृति उससे भिन्न है, वह भी कोई मेरी नहीं है, फिर भी सारे संसार में सर्वत्र वही, वही, वही और वही दृष्टिगोचर होती है। यह कैसा विचित्र अद्वैतवाद (एकरूपता) है? ।।१०४।। ___ इस प्रकार कमलामेला के रूप में दीवाने सागरचन्द्र को सारा जगत् अंधकारपूर्ण लगने लगा। सच है सति प्रदीपे सत्यग्नौ सत्सु नानामणिषु च । विनैकां मृगशावाक्षिं तमोभूतमिदं जगत् ।।१०५।। अर्थात् - 'दीपक के होते हुए भी, अग्नि के जलते हुए भी और अनेक मणियों के जगमगाते हुए भी अगर एक मृगशिशु के समान नेत्र वाली न हो तो - 219
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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