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________________ सागरचन्द्रकुमार की कथा श्री उपदेश माला गाथा १२० सारा जगत् अंधकारमय है।' ॥१०५॥ सागरचन्द्र उसके मोह में इतना पागल हो उठा कि जहाँ भी किसी स्त्री को देखता, तुरंत उससे कहता-'प्राणप्रिये! मेरे पास आओ। अपने सान्निध्य से मुझे कृतार्थ करो।' एक दिन वह इसी तरह धुन में कहीं जा रहा था कि पीछे से शाम्बकुमार ने आकर मजाक में अपनी हथेलियों से उसकी आँखें बंद कर दी। इस पर सागरचन्द्र बोल उठा-'बस, बस, मैं जान गया। तूं मेरी कमलामेला है। मेरी आँखें क्यों बंद कर दी तूने! यदि तूं मेरे पास आयी है तो मेरी गोद में तेरा बैठना ठीक है।' शाम्बकुमार खिलखिलाकर हंस पड़ा और बोला-'भाई सागरचन्द्र! मैं कमलामेला नहीं हूँ। मैं तो कमलामेला से मिलाप करा देने वाला तेरा चाचा हूँ! आँखें खोलकर भलीभांति देख तो सही सामने। क्योंकि तुझे कामान्धतावश कुछ भी दिखाई नहीं देता।' यथार्थ ही कहा है अनुभवियों ने दिवा पश्यति न घूकः, काको नक्तं न पश्यति । अपूर्वः कोऽपि कामान्धो, दिवा-नक्तं न पश्यति ॥१०६।। अर्थात् - 'उल्लू दिन में नहीं देख सकता और कौआ रात में नहीं देख सकता; मगर कामांध तो कोई अनोखा अंध होता है जो न दिन में देखता है, न रात को।' ॥१०६॥ शाम्बकुमार के द्वारा इतना झकझोरने पर किसी तरह सागरचन्द्र ने आँखें खोली तो सामने अपने चाचा को देखकर लज्जित होकर उसके चरणों में गिर पड़ा . और अपने अविनय के लिए उससे क्षमा मांगने लगा। अभी काम का नशा पूरा उतरा नहीं था, इसीलिए सागरचन्द्र ढीठ होकर बोला-"चाचा! आपने कहा था कि मैं कमलामेला से तुम्हारा मिलाप कराने वाला हूँ। अतः अपनी बात को सच्ची साबित करीए। सत्पुरुष मुंह से जो कह देते हैं, उसका पालन अवश्य करते हैं। कहा भी है जं भासते णवि सज्जणेण, जं भासियं महेवयणं । तव्वयणसाहणत्थं सप्पुरिसा हुँति उज्जमिया ॥१०७।। अर्थात् - सज्जन पुरुष पहले तो किसी को सहसा वचन नहीं देते; मगर मुंह से वचन बोल देने पर वे उस वचन का (सत्य सिद्ध) पालन करने में उद्यमी रहते हैं।' ॥१०७।।। साथ ही सज्जन पुरुष परोपकार करने में भी कुशल होते हैं। कहा भी मनसि वचसि काये पुण्यपीयूषपूर्णास्त्रिभुवनमुपकार श्रेणिभिः पीणयन्तः । परगुणपरमाणून् पर्वतीकृत्य नित्यं, निज हृदि विकसन्तः सन्तः सन्ति कियन्तः ।।१०८।। 220
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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