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________________ सागरचन्द्रकुमार की कथा श्री उपदेश माला गाथा १२० लोच या धर्मपालन के लिए आने वाले कायकष्टों को समभावपूर्वक सहन करता है, वही वास्तव में साधुधर्म की सम्यग् आराधना कर सकता है। क्योंकि जो धैर्यवान होकर ऐसे कष्टों को तुच्छ समझकर उन्हें सह लेता है, वही तपश्चरण करता है। परंतु कायर होकर घबराकर जो ऐसे समय मैदान छोड़ देता है, प्रमाद करता है, वह अपने तप-संयम के वास्तविक फल से वंचित रहता है ।। ११९ ।। धम्ममिणं जाणंता, गिहिणो वि दड्ढव्यया किमुअ साहू ? | कमलामेलाहरणे, सागरचंदेण इत्युवमा ॥१२०॥ शब्दार्थ - जिनेन्द्रदेव द्वारा प्ररूपित इस धर्म को जानने वाले गृहस्थ (श्रावक) भी दृढ़व्रती (नियम- व्रतों में पक्के) होते हैं, तो फिर निर्ग्रन्थ साधुओं के दृढ़व्रती होने में कहना ही क्या? इस विषय में कमलामेला का अपहरण कराने वाले सागरचन्द्र श्रावक का उदाहरण प्रसिद्ध है। सागरचन्द्रकुमार की कथा द्वारिका नगरी के राजा श्रीकृष्ण के बड़े भाई बलभद्र (बलदेव) के निषेध नामक पुत्र के पुत्र का नाम सागरचन्द्र था। उसी नगरी में धनसेन नामक एक धनाढ्य सेठ रहता था। उसने अपनी पुत्री कमलामेला की सगाई उग्रसेन पुत्र नभसेन के साथ कर दी। के एक दिन नारदमुनि घूमते-घूमते नभसेन के यहाँ पहुँच गये। नभसेन उस समय अपने खेलकूद में व्यस्त था, इसीलिए उनका कोई आदर नहीं किया। नारदमुनि को यह बात बहुत खटकी। वे रुष्ट होकर वहाँ से उड़कर सागरचन्द्र के यहाँ पहुँचे। सागरचन्द्र ने आते ही उन्हें विनयपूर्वक आदर-सत्कार करके सिंहासन पर बिठाया और उनके चरण धोकर हाथ जोड़कर खड़े होकर निवेदन किया“स्वामिन्! कहिए, मेरे योग्य क्या सेवा है? आपने कोई आश्चर्यजनक अनुभव या कौतुक देखा, सुना या जाना हो तो फरमाइए। " सागरचन्द्र के विनयपूर्ण व्यवहार से प्रसन्न होकर नारदमुनि ने कहा - 'कुमार! यों तो इस विशाल पृथ्वी पर अनेक कौतुक देखता रहता हूँ और देखे भी हैं। परंतु वर्तमान में महा-आश्चर्यकारी कौतुक, जो मैंने देखा है, वह है कमलामेला का अद्वितीय रूप, सौन्दर्य में इसकी बराबरी वर्तमान संसार में कर सके ऐसी कोई स्त्री मुझे नजर नहीं आयी। जिसने इसका रूप नहीं देखा, उसका मनुष्यजन्म वृथा है। परंतु इस रूपराशि कमलामेला की नभसेन के साथ सगाई करके उसके माता-पिता ने काच और मणि के संयोग की तरह अयोग्य संबंध जोड़ा है।" इस प्रकार नारदजी ने सागरचन्द्र के मन में 218
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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