SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 233
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बलदेव मुनि, रथकार और मृग की कथा श्री उपदेश माला गाथा १०८ बलदेव मुनि, रथकार और मृग की कथा द्वैपायन ऋषि यादवकुमारों की हरकतों से क्षुब्ध होकर आगामी जन्म में द्वारिकानगरी को जलाकर भस्म करने का निदान (दुःसंकल्प) कर चुके थे। फलतः अपने निदानानुसार वे अग्निकुमार देव बनें और उन्होंने द्वारिकानगरी को भस्म कर दिया था। उस समय श्री कृष्ण और बलदेव दोनों ही जीवित रहे थे। वे दोनों भाई द्वारिका छोड़कर जंगल में चले गये। श्रीकृष्ण को अचानक प्यास लगी। बलदेव पानी की खोज में गये। परंतु वहाँ एक शत्रु के साथ युद्ध करते-करते शाम हो गयी। इधर कृष्ण उनका इन्तजार करते-करते थककर एक पेड़ की छाया में पैर पर पैर चढाकर लेट गये। वसुदेव की रानी जरा के पुत्र जराकुमार ने जब भगवान् अरिष्टनेमि के मुंह से यह सुनाथा कि 'जराकुमार के हाथ से श्रीकृष्ण की मृत्यु होगी;' तो अपने हाथ से होने वाले इस अनिष्ट से बचने के लिए वह शिकार खेलने के अपने शस्त्र लेकर जंगल में चल पड़ा। संयोगवश जहाँ कृष्ण लेटे हुए थे उसी वन में वह आ पहुँचा। उसने दूर से ही श्रीकृष्णजी के पैर का तल देखा तो उस पर चिह्नित पद्मचिह्न को भ्रान्ति से मृग की चमकती आंख समझकर खींचकर जोर से बाण मारा। वह सीधा श्रीकृष्णजी के पैर में जाकर लगा और वे लहुलुहान होकर गिर पड़े। जराकुमार ने जब पास जाकर देखा तो वह रो पड़ा और पश्चात्तापपूर्वक विलाप करने लगा- "हाय! मेरे हाथ से ही मेरे भाई की हत्या!" . उस समय श्रीकृष्ण ने उससे कहा-"पापी! तूं यहाँ से झटपट भाग जा। नहीं तो अभी बलदेव आयेगा, वह तुझे जिंदा नहीं छोड़ेगा।" जराकुमार भयभीत होकर शीघ्र ही वहाँ से नौ दो ग्यारह हो गया। श्रीकृष्णजी के मन में अपने आप पर बड़ी ग्लानि हुई कि 'अपने जीवन में ३५० संग्रामों में विजयी और महाबली होते हुए भी जराकुमार के एक ही बाण से मेरी मृत्यु हो रही है! और मेरा वह हत्यारा भी सकुशल चला गया।' पर ऐसा ही होना था। श्रीकृष्णजी निरुपाय थे; अतः मृत्यु अवश्यम्भावी थी। मरकर वे अधोलोक के तृतीय धराधाम में पहुँचे। कुछ ही समय बाद बलदेवजी पानी लेकर वहाँ आये और कृष्ण से कहा- 'बन्धु! उठो, मैं तुम्हारे लिये ठंडा पानी लाया हूँ, पी लो।' पर कृष्ण की ओर से कोई उत्तर न मिला। बलदेव ने सोचा- 'मुझे पानी लाने में काफी देर हो गयी, इसीलिए भाई रुष्ट हो गया दिखता है। मैं उससे क्षमा मांगकर उसे प्रसन्न करूँ" यों सोचकर भाई के चरणों में पड़कर निवेदन किया- 'बन्धुवर! यह क्रोध करने का अवसर नहीं है। मुझे क्षमा करो और पानी पीकर जल्दी यहाँ से चलो। 206
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy