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• श्री उपदेश माला गाथा १०७-१०८ श्री महावीर स्वामी के पूर्वजन्म की कथा छत्रिका नगरी में जितशत्रु राजा की भद्रा नाम की रानी की कुक्षि से २५ लाख वर्ष की आयु वाला नन्दन नामक पुत्र हुआ। उसने पोट्टिलाचार्य से मुनि दीक्षा अंगीकार कर यावज्जीव मासक्षपण तप करके बीस स्थानक की आराधना करके तीर्थंकर नामकर्म उपार्जित किया। यहाँ एक लाख वर्ष तक दीक्षापर्याय का पालनकर अंत में एक मास के संल्लेखना-संस्तारक रूप अनशन करके आयुष्य पूर्ण किया। यहाँ से २६ वें भव में दशवें देवलोक में पुष्पोत्तरावतंस नामक विमान में वह २० सागरोपम की स्थितिवाला देव हुआ। वहाँ से आयुष्य पूर्णकर २७ वे भव में चौबीसवें तीर्थंकर के रूप में श्रीवर्धमान (महावीर) स्वामी हुए।
__ इस तरह मरिचि के भव में उत्सूत्रप्ररूपणा करने से कोटाकोटी सागरोपम तक संसार की वृद्धि की। जो साधक सूत्र विरुद्ध प्ररूपणा करते हैं, वे इसी प्रकार संसार की वृद्धि करते हैं। इसीलिए कदापि उत्सूत्र-प्ररूपणा नहीं करनी चाहिए। इस कथा से यही उपदेश मिलता है ।।१०६॥
कारुण्ण-रुण्ण-सिंगारभाव-भय-जीवियंतकरणेहिं । साहू अवि य मरंति न य नियनियमं विराहिंति ॥१०७॥
शब्दार्थ - करुणाभाव, रुदन, शृंगारभाव, राजा आदि किसी की ओर से भय या जीवन का अंत तक करने वाले अनुकूल या प्रतिकूल उपसों (कष्टों) के आ पड़ने पर भी साधु अपने नियमों की कभी विराधना (भंग) नहीं करते ।।१०७।।
अप्पहियमायरंतो, अणुमोअंतो य सुग्गइं लहइ ।
रहकार-दाणअणुमोयगो, मिगो जह य बलदेवो ॥१०८॥ . शब्दार्थ - तप, संयम आदि आत्मकल्याण का आचरण करने वाला तथा दानादि धर्म की अनुमोदना करने वाला जीव भी सद्गति प्राप्त करता है। जैसे मुनि को दान देने वाला रथकार, उसकी अनुमोदना करने वाला मृग और तप-संयम का आचरण करने वाला मुनि बलदेव तीनों ने सुगति प्राप्त की ।।१०८।।
भावार्थ - 'बलदेव मुनि, रथकार (बढ़ई) और हिरन ये तीनों यहाँ से आयुष्य पूर्ण कर पांचवें देवलोक में गये; क्योंकि एक ने तप, संयम आदि आत्महित का आचरण किया था, दूसरे ने भिक्षा के रूप में दान दिया था और तीसरे ने मुनि को दान दिलाने की दलाली की थी और दान की अतीव भाव से अनुमोदना की थी। मतलब यह है दान-शील आदि धर्म का आचरण, उसके पालन में सहायता या अनुमोदना करने से भी इतना उत्तम फल मिलता है।' .
प्रसंगवश यहाँ बलदेव मुनि, रथकार और मृग का उदाहरण दे रहे हैं
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