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श्री महावीर स्वामी के पूर्वजन्म की कथा
श्री उपदेश माला गाथा १०६ हुआ। जिंदगी के अंतिम दिनों में त्रिदंडी बना। १३ वें भव में महेन्द्रकल्प में मध्यम स्थिति वाला देव हुआ। वहाँ से कितने ही काल तक संसार में परिभ्रमण करके १४ वें भव में राजगृह नगर में ३४ लाख पूर्व की आयुष्य वाला स्थावर नाम का ब्राह्मण हुआ। त्रिदण्डीवेष में ही आखिरी जिंदगी पूरी की। वहाँ से १५ वें भव में एक करोड़ वर्ष की आयु वाला विश्वभूति नामक युवराज हुआ। इस जन्म में संसार से विरक्ति होने के कारण उसने संभूतिमुनि से मुनि दीक्षा धारण करके एक हजार वर्ष तक कठोर तपश्चर्या की। एकदिन मासिक (मासक्षपण) उपवास के पारणे के लिए मथुरा नगरी में गौचरी के लिए जा रहे थे कि रास्ते में एक गाय ने सींग मारे। तपस्या से शरीर दुर्बल था ही; अतः नीचे गिर पड़े। यह देखकर उनका गृहस्थपक्ष का चाचा का पुत्र विशाखानन्दी, जो वहाँ एक शादी में आया हुआ था; उपहास के स्वर में बोला-'वाह..रे डरपोक! तूं तो एक मुट्ठी के प्रहार से कोठे के वृक्ष के तमाम फल गिरा देता था! आज कहाँ गयी तेरी वह ताकत? इस तानेकशी से उत्तेजित होकर विश्वभूति मुनि ने उस गाय के दोनों सीगों को पकड़कर अधर घुमाई वह बेचारी मरणासन्न हो गयी। फिर उसने निदान किया कि "इस तप के फल के रूप में मैं भवान्तर में सबसे अधिक बलवान बनूं।1" एक हजार वर्ष का तप निदान सहित करने और अंतिम समय में आलोचना किये बिना ही आयुष्य पूर्णकर वह १७ वें भव में महाशुक्रदेवलोक में उत्कृष्ट स्थिति वाला देव हुआ। १८ वें भव में पोतनपुर में प्रजापति नामक राजा, ने अपनी पुत्री मृगावती से शादि की थी उसी के गर्भ में आया। माता ने ७ स्वप्न देखे; नौ मास पूर्ण होने पर पुत्र को जन्म दिया। नाम रखा गया--त्रिपृष्ठ वासुदेव। तीन खंडों की दिग्विजय करके वासुदेव बना और अनेक पापकर्मों का बंध कर ८४ लाख वर्ष का आयुष्य पूर्णकर १९ वें भव में सातवें नरक में नारक बना। वहाँ का आयुष्य पूर्णकर २० वें भव में सिंह बना। २१ वें भव में चौथी नरक का नारक बना। तत्पश्चात् अनेक वर्षों तक बहुत-से जन्मों में चक्कर काटकर २२ वें भव में एक करोड़ वर्ष की आयु वाला मनुष्य बना। मनुष्यजन्म में शुभकर्मों को उपार्जनकर २३ वें भव में महाविदेह क्षेत्र की राजधानी मूकानगरी में धनंजय राजा के यहाँ धारिणी रानी की कुक्षि से पुत्ररूप में जन्म लिया। माता ने गर्भकाल में १४ स्वप्न देखे थे। अतः वह ८४ लाख पूर्व की आयुष्य वाला प्रियमित्र नामक चक्रवर्ती हुआ। बाद में पोट्टिलाचार्य से मुनिदीक्षा लेकर एक करोड़ वर्ष तक दीक्षापर्याय का पालनकर २४ वें भव में भरतक्षेत्र की
1. अन्य कथा में इसे मारनेवाला बनं ऐसाभी लिखा है।
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