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________________ श्री उपदेश माला गाथा १०५ श्री कालिकाचार्य की कथा श्री कालिकाचार्य की कथा तुरमणि नाम के नगर में जितशत्रु राजा राज्य करता था। उसी नगर में कालिक नाम का एक विप्र रहता था। उस ब्राह्मण के भद्रा नाम की एक बहन थी और दत्त नाम का पुत्र था। एक समय कालिक ब्राह्मण ने अपने आप प्रतिबुद्ध होकर चारित्र ग्रहण किया। और शास्त्रों का अध्ययन, तप आदि करके वे आचार्य बनें। उनका भानजा दत्त निरंकुश होने से स्वच्छंदी बन गया, वह द्यूत आदि दुर्व्यसनों में पड़कर दुःखी हो गया। अंततः वह राजा की सेवा में रहने लगा। कर्मयोग से राजा ने उसे मंत्री बना दिया। अधिकार पाकर चालाकी से उसने राजा को पदभ्रष्ट करके स्वयं राजग्रहण कर लिया। राजा भी उसके भय से कहीं भाग गया और गुप्तरूप से किसी स्थान में रहने लगा। महाक्रूरकर्मा दत्त राजा मिथ्यात्व से मोहित होकर अनेक प्रकार के यज्ञ करने लगा, और उनमें अनेक पशुओं की हत्या करने लगा। उसी दौरान वहाँ श्रीकालिकाचार्य महाराज पधारें। भद्रा माता के आग्रह से दत्तराजा भी उन्हें वंदन करने गया। गुरु महाराज ने उपदेश दिया। धर्माद्धनं धनत एव समस्त कामाः, कामेभ्य एव सकलेन्द्रियजं सुखं च । कार्यार्थिनाहि खलु कारणमेषणीयं, धर्मो विधेय इति तत्त्वविदो वदन्ति ॥९६।। 'धर्म से धन मिलता है, धन से समस्त कामनाएँ सिद्ध होती हैं और कामनाओं की सिद्धि से सारे इन्द्रियजन्य सुख मिलते हैं। इसीलिए कार्यार्थी को तो उसका कारण अवश्य खोजना चाहिए। इन सबका परंपरा से कारण धर्म है। इसीलिए तत्त्वज्ञ कहते हैं-'धर्माचरण करो।' ॥९६।। उपदेश सुनने के बाद दत्तराजा ने यज्ञ का फल पूछा। गुरु ने कहा- 'जहाँ हिंसा हो, वहाँ धर्म नहीं हो सकता,' कहा हैदमो देव-गुरूपास्तिदानमध्ययनं तपः । सर्वमप्येतदफलं हिंसां चेन्न परित्यजेत्।।९७।। _ 'यदि हिंसा का त्याग न किया जाय तो इन्द्रियों का दमन, देवगुरु की सेवा, दान, अध्ययन और तप, ये सब व्यर्थ हैं।' ॥९७॥ दत्त ने फिर यज्ञ का फल पूछा, तो गुरुने कहा- 'हिंसा दुर्गति का कारण है।' कहा भी है पंगु-कुष्टि-कुणित्वादि दृष्ट्वा हिंसाफलं सुधीः । निरागस्त्रसजन्तूनां हिंसां सङ्कल्पतस्त्यजेत् ।।९८॥ लंगडा होना, कुष्ट रोगी होना, या कुबड़ा आदि होना हिंसा का ही फल है, ऐसा जानकर बुद्धिमान पुरुष निरपराधी त्रस जीवों की संकल्प से भी हिंसा का त्याग करें ॥९८॥ 199
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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