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________________ श्री कालिकाचार्य की कथा श्री उपदेश माला गाथा १०५ तब दत्तराजा ने झुंझलाकर कहा–'तुम ऐसा टेढामेढा, गोलमाल उत्तर क्यों देते हो? यज्ञ का फल जैसा हो वैसा साफसाफ (सत्य) कहो।' तब कालिकाचार्य ने विचार किया कि 'यद्यपि यह राजा है और यज्ञ में इसकी गाढ़ प्रीति है। जो होना होगा वही होगा, मैं कदापि मिथ्या नहीं बोलूंगा। प्राणांत कष्ट आने पर भी असत्य बोलना कल्याणकारी नहीं है। नीतिज्ञों का कथन हैनिन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु, लक्ष्मी: समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम् । अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा, न्याय्यात्पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः ।।९९।। "नीति निपुण मनुष्य चाहे निन्दा करे अथवा स्तुति; लक्ष्मी की प्राप्ति हो अथवा अपनी इच्छा से चली जाय; मृत्यु आज ही हो, अथवा युग के अंत में हो, परंतु धीर पुरुष न्याय युक्त मार्ग से एक कदम भी विचलित नहीं होते।''।९९।। इस तरह मन में निश्चय करके कालिकाचार्य ने कहा-हे दत्त! मैं निश्चयपूर्वक कहता हूँ कि 'यज्ञ का फल नरकगति है।' कहा भी है यूपं छित्त्वा पशून् हत्वा, कृत्वा रुधिरकर्दमम् । यद्येवं गम्यते स्वर्गे, नरके केन गम्यते ।।१००।। अर्थात् – यज्ञ-स्तम्भ को छेदनकर, पशुओं को मारकर और उनके खून का कीचड़ बहाकर यदि स्वर्ग जाया जा सकता है तो फिर नरक में कौन जायेगा?॥१९॥ . दत्त ने पूछा-'यह बात कैसे जानी जा सकती है?' गुरुमहाराज ने उत्तर में कहा-"आज से सातवें दिन घोड़े के पैर के नीचे दबने से विष्टा उछलकर तुम्हारे मुख में पड़ेगी और बाद में तुम लोहे की कोठी में डाले जाओगे। इस अनुमान से तुम्हारी गति अवश्यमेव नरक है। ऐसा मुझे दिखता है।'' दत्त ने पूछा- "तुम्हारी कौन-सी गति होगी?' गुरु ने कहा- ''मैं धर्म के प्रभाव से स्वर्ग में जाऊंगा।" यह सुनकर दत्त ने क्रोधित होकर सोचा- "यदि सातवें दिन तक यह बात प्रमाणित नहीं हुई तो मैं अवश्य इसको मार डालूंगा।" अतः कालिकाचार्य के आसपास राजसेवकों को नियुक्त करके राजा स्वयं नगर में गया और संपूर्ण नगर के सभी रास्तों में पड़ी हुई गंदगी साफ करवाकर सभी स्थानों पर फूल बिछवा दिये और स्वयं अन्तःपुर में ही बैठा रहा। इस तरह छह दिन व्यतीत हो गये और सातवें दिन को भ्रान्ति से आठवां दिन मानकर क्रुद्ध होकर घोड़े पर सवार होकर दत्त राजा गुरु को मारने चला। इतने में किसी वृद्ध माली को टट्टी की जोर की हाजत हो जाने से रास्ते में ही शौच बैठकर उस पर उसने फूल ढांके और चला गया। सहसा राजा के घोड़े का पैर उस पर टिकने से विष्टा एकदम उछली और 200
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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