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केशीगणधर और प्रदेशी राजा की कथा श्री उपदेश माला गाथा १०३-१०५ करके समाधिपूर्वक इस शरीर को छोड़ा। यहाँ से आयुष्य पूर्ण करके प्रदेशी राजा सूर्याभ नामक विमान में चार पल्योपम आयुष्य वाला सूर्याभ नामक देव बना। वहाँ से आयुष्य पूर्ण करके वह महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर मोक्ष पहुँचेगा। .... इस कथा का सारांश यह है कि नरक में पहुँचने का सामान इकट्ठे किये हुए अत्यन्त पापिष्ठ प्रदेशी राजा ने केशी गणधर के प्रताप से देवलोक प्राप्त किया। इसीलिए दुःख का निवारण और सुख की प्राप्ति कराने वाले उपकारी धर्मचार्य की यत्नपूर्वक सेवा करनी चाहिए ॥१०२॥
इसी बात को ग्रन्थकार आगे की गाथा में बता रहे हैंनयगइगमण-पडिहत्थाए कए तह पएसिणा रण्णा ।
अमरविमाणं पत्तं, तं आयरियप्पभावेणं ॥१०३॥
शब्दार्थ - नरकगति में गमन करने के लिए उद्यत प्रदेशीराजा को आचार्य (केशीश्रमण) के प्रताप से देव विमान प्राप्त हुआ। सचमुच, आचार्य-(गुरु) सेवा महान फलदात्री होती है ॥१०३।।
धम्ममइएहिं अइसुंदरेहिं, कारणगुणोवणीएहिं । पल्हायंतो य मणं, सीसं चोएड आयरिओ ॥१०४॥
शब्दार्थ - आचार्य भगवान् अतिसुंदर (निर्दोष) धर्ममय कारणों, (हेतुओं) युक्तियों और दृष्टांतों से शिष्य के मन को आनंदित करते हुए उसे प्रेरणा देते हैं . और संयम (धर्म) मार्ग में स्थिर करते हैं ।।१०४।।
जीअं काऊण पणं, तुरमिणिदत्तस्स कालिअज्जेण । अवि य सरीरं चत्तं, न य भणियमहम्मसंजुत्तं ॥१०५॥
शब्दार्थ - तुरमणि नगर में कालिकाचार्य से दत्त राजा ने पूछा तो उन्होंने अपने शरीर के त्याग की परवाह न करके भी असत्य अधर्मयुक्त वचन नहीं कहा ।।१०५।।
____ भावार्थ - दत्तराजा ने जब कालिकाचार्य से यज्ञ का फल पूछा तो अपने शरीर (प्राण) की ममता छोड़कर निर्भयता पूर्वक स्पष्ट कहा- 'ऐसे हिंसामय यज्ञ का फल तो नरकगति ही है,' मगर राजा के लिहाज में आकर धर्मविरुद्ध असत्य उत्तर न दिया। इसी प्रकार मुनियों को भी धर्म संकट आ पड़ने पर भी धर्मविरुद्ध वचन नहीं कहना चाहिए।
___ इस विषय में प्रसंगवश कालिकाचार्य की कथा दी जा रही है
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