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श्री उपदेश माला गाथा १०२
केशीगणधर और प्रदेशी राजा की कथा उसकी अन्तरात्मा प्रतिबुद्ध हो उठी। उसने विनय पूर्वक उद्गार निकाले - "भगवन् ! आपका कथन बिलकुल सत्य है, तथ्य, तत्त्वरूप और वास्तविक है। इसके विपरीत बातें चाहे वे परम्पराचरित हो, तो भी अनर्थकर है। अतः मेरी इच्छा है कि मैं आपसे सम्यक्त्वसहित श्रावक के १२ व्रत अंगीकार कर वास्तविक धर्म का आचरण करूँ।" केशीगणधर ने राजा प्रदेशी को सम्यक्त्वपूर्वक बारहव्रतों का स्वरूप समझाकर अंगीकार कराएँ। जिस समय राजा प्रदेशी मुनिवर से मंगलपाठ सुनकर विदा होने लगा; उस समय उन्होंने कहा - 'राजन् ! अब तुम रमणीक (रम्यजीवनवाले) होकर जा रहे हो, लेकिन देखना, बाद में कभी अरमणीक ( अरम्य जीवनवाले) न बन जाना ('मा णं तुमं पएसी पुव्विं रमणिज्जे भवित्ता पच्छा अरमणिज्जो भविज्जासि' - राजप्रश्नीय सूत्र ) इस समय तुम जैनधर्म की प्राप्ति होने से दाता के बदले अदाता (कृपण) न बनना; क्योंकि अदाता बनने पर अन्तरायकर्म का बंध तो होगा ही, साथ ही जिनधर्म की भी निन्दा होगी, चिरकाल से प्रचलित दान धर्म को सहसा बंद कर देने में तुम लोकविरुद्धता और निन्दा आदि दोषों के भागी भी बनोगें। उन लोगों को पात्र बुद्धि से दान न देना परंतु औचित्यादि दान का कहीं पर भी निषेध नहीं किया है। इसीलिए यथायोग्य समझकर परम्परा से प्रचलित दान अवश्य चालू रखना। तुम्हें सिर्फ मिथ्यात्व और अधर्म को छोड़ना है, उत्तम दया, दान आदि धर्म का आचरण निरंतर करते रहना है। " प्रदेशी राजा के हृदय में मुनिवर की बातें जम गयी। उसने अपने राजद्वार पहुँचते ही सर्वप्रथम अपनी सारी आय के चार हिस्से किये। एक हिस्सा अपने गृहकार्यों में खर्च के लिए, एक हिसा राज्यकार्य चलाने के लिए भंडार के लिए, एक सेना के निर्वाह के लिए और एक हिस्सा दान आदि धर्म - कार्यों में खर्च करने के लिए नियत कर दिया।
प्रदेशी राजा को श्रावकधर्म का पालन करते हुये काफी समय व्यतीत हो गया। एक दिन राजा प्रदेशी पौषधोपवास के पारणे भोजन करने आया। उस समय परपुरुष में आसक्त पटरानी सूरिकान्ता ने पहले से विष मिलाकर रखा हुआ भोजन उसे परोस दिया। राजा को एक-दो कौर लेते ही जहर का पता लग गया। लेकिन रानी पर किञ्चित् भी क्रोध किये बिना शांतभाव से भोजन कर लिया। भोजन करके वे सीधे पौषधशाला में आये और दर्भासन बिछाकर ईशानकोण की ओर मुंह करके बैठे और अपने धर्मगुरु श्री केशीगणधर को वंदनाकर पहले अपने स्वीकृत व्रतों में लगे अतिचारों कीं सम्यक् प्रकार से आलोचना - निन्दना की, और फिर प्रतिक्रमण करके ८४ लाख जीवयोनि से क्षमायाचना की और १८ पापस्थानक एवं चारों प्रकार के आहार का त्याग करके, हिंसा आदि का सर्वथा त्याग किया, इस प्रकार अनशन
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