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केशीगणधर और प्रदेशी राजा की कथा
श्री उपदेश माला गाथा १०२ खाली करके अपनी गाड़ियों में सोना भर लिया, पर उस लोहवणिक् ने लोहा ही भरा रखा। इसके पश्चात् कुछ दूर चले होंगे कि उन्हें जगमगाती हुई रत्नों की खान दिखाई दी। उसके सिवाय सबने सोना वहीं छोड़ दिया और अपनी-अपनी गाड़ियों में रत्न भर लिये। उन्होंने लोहवणिक् से कहा- "अरे भले आदमी! इन अमूल्य रत्नों को छोड़कर तूं लोहा क्यों भरे हुए है। लोहा यहीं छोड़ दे, और बदले में रत्न भर ले।" पर वह न माना सो न माना। उल्टे उसने उन साथियों को फटकारा"तुम लोगों में स्थिरता नहीं है। एक को छोड़कर दूसरे को और दूसरे को छोड़कर तीसरे को लेते जाते हो। मैं तुम्हारी तरह अस्थिर दिमाग का नहीं हूँ। मैंने जो ले लिया सो ले लिया, अब उसे छोड़ नहीं सकता।" आखिर वे सब लोग अपनेअपने घर पहुँचे। जिनके पास रत्न थे, वे उन्हें बेचकर मालामाल हो गये और आनंद से जिंदगी बिताने लगे। परंतु वह लोहवणिक् लोहे के दाम ज्यादा न मिलने के कारण मन ही मन बड़ा दुःखी हुआ। वह पश्चात्ताप करने लगा-'हाय! मैंने उस समय साथियों का कहना न माना, लोहे को न छोड़ने की जिद्द पर अड़ा रहा। अब क्या हो?" राजन्! जैसे उस लोहवणिक् को चिरकाल तक पछतावा करना पड़ा, वैसे ही तुम्हें भी पश्चात्ताप करना पड़ेगा। क्या बुद्धिमान पुरुष कुलपरम्परागत रोग, दरिद्रता या दुःख को पकड़े रहता है, छोड़ता नहीं? इस प्रकार तुम्हें भी कुलपरम्परागत इस पाप को अहितकर समझकर छोड़ देना चाहिए। यदि कुलपरम्परागत सभी चीजें धर्म ही होती तो जगत् में अधर्म का नामोनिशान भी न मिलता। कहा भी है
दारिद्रय-दास्य-दुर्नय-दुर्भगता-दुःखितादि-पितृचरितम् ।
नैव त्याज्यं तनयैः स्वकुलाचारैककथितनयैः ।।९५।।
"यदि ऐसा नियम हो कि कुलपरम्परागत बातें कभी नहीं छोड़नी चाहिए; तब तो अपनी कुलाचार-परायणता की नीति के अनुसार पुत्रों को अपने पितापितामह आदि द्वारा अनुभूत दरिद्रता, दासता, दुर्नीति, दुर्भाग्य और दुःख आदि को कभी नहीं छोड़ना चाहिए।" ||९५।।
परंतु ऐसा कहीं होता नहीं। इसीलिए राजन्! कुलपरम्परागत सभी बातें धर्म नहीं होती, न किसी कुल के पूर्वजों द्वारा आचरित चोरी, जारी, हत्या आदि पाप धर्म हो सकते हैं। अतः ऐसे पापमिश्रित कुलाचार का छोड़ना और जीवरक्षादि धर्ममिश्रित आचार को ग्रहण करना ही विवेकी पुरुषों का कर्तव्य
श्री केशीश्रमण के इस उपदेश से राजा प्रदेशी बड़ा प्रभावित हुआ, 196 ---