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________________ श्री उपदेश माला गाथा १०२ केशीगणधर और प्रदेशी राजा की कथा यह सुनकर राजा ने कहा- "स्वामिन्! मैंने एक चोर का वजन करके उसका श्वास रोककर उसे मार डाला। फिर उसे तोला तो उतना ही वजन निकला। तब मैंने जाना कि आत्मा नाम का कोई पदार्थ नहीं है। यदि उसमें आत्मा होती तो उसके निकलने पर वजन कम हो जाना चाहिए था, लेकिन वैसा न हुआ। केशीगणधर ने जबाब दिया- "राजन्! यदि कोई व्यक्ति चमड़े की एक मशक लेकर तोलकर उसमें ठसाठस हवा भर दे तो क्या उसका वजन बढ़ जायगा? नहीं, उसका वजन उतना ही रहेगा। इसी प्रकार आत्मा के संबंध में समझना चाहिए। जब रूपी द्रव्य का हवा भरने पर वजन बढ़ता नहीं तो अरूपी द्रव्य-आत्मा का वजन कैसे बढ़-घट जायगा? सूक्ष्मरूपी द्रव्यों की जब यह विचित्र हालत है, तो अरूपी द्रव्य की विचित्र हालत हो उसमें कहना ही क्या? इसीलिए इस बात में तुम्हारी शंका निर्मूल है। हम आत्मा को अनुभव प्रमाण से जान सकते हैं और केवलज्ञानी प्रत्यक्ष प्रमाण से। 'मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ' इस प्रकार का ज्ञान क्या शरीर को होता है? इस प्रकार ज्ञान करने वाला आत्मा ही होता है। इसीलिए आत्मा अनुभव से सिद्ध है। जैसे तिलों में तेल, दूध में घी और काष्ठ में अग्नि रहती है, लेकिन इन चमड़े की आँखों से ये वस्तुयें नहीं दिखाई देती, उसी प्रकार शरीर में आत्मा का निवास चर्मचक्षुओं से दिखाई नहीं देता।" ये और इस प्रकार की अनेक युक्तियों, प्रमाणों और अकाट्य तर्कों से श्रीकेशीश्रमण गणधर ने प्रदेशी राजा को उत्तर दिया, जिससे उसकी शंकाओं का यथार्थ समाधान हो गया। राजा ने प्रसन्न होकर विनय पूर्वक नमस्कार करके श्री केशीगणधर से कहा-"भगवन्! आपकी बात सत्य है, आपके ज्ञान को धन्य है। आपके उपदेशमन्त्र से मेरे हृदय में स्थित मिथ्यात्व पिशाच तो भाग गया है; मगर कुलपरम्परा से प्राप्त इस नास्तिक धर्म को सहसा कैसे छोडू? यही विचार बार-बार आ रहा है।" श्री केशीगणधर ने कहा- 'राजन्! तुम भी उस लोहवणिक् की तरह अपनी मूर्खता प्रदर्शित कर रहे हो। कुछ वणिक् मिलकर व्यापार करने के लिए परदेश रवाना हुए। रास्ते में उन्होंने एक जगह लोहे की खान देखी। उन्होंने लोह से गाडियाँ भर दी। आगे जाने पर उनको एक तांबे की खान मिली। तब एक वणिक् को छोड़कर सबने अपनी गाड़ियों से लोहा उतारकर उनमें तांबा भर लिया। कुछ दूर जाने पर उन्हें चांदी की खान दिखाई दी। एक को छोड़कर सब ने अपनी-अपनी गाड़ी में चांदी भर ली, तांबा वहीं छोड़ दिया। उस लोहवणिक् को उन्होंने लोहा वहीं छोड़कर चांदी भर लेने के लिए बहुतेरा समझाया। पर वह अपनी जिद्द पर अड़ा रहा। आगे चलने पर उन्हें सोने की खान मिली। और सबने चांदी - 195
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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