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________________ केशीगणधर और प्रदेशी राजा की कथा श्री उपदेश माला गाथा १०२ ने कहा-'उसी तरह देव भी अपना ऐश्वर्य, भोगविलास आदि छोड़कर दुर्गन्धभरे इस मृत्युलोक में नहीं आते।' कहा भी है चत्तारि-पंच-जोयणसयाई, गंधो अ मणुअलोगस्स । उड्ढे वच्चइ जेणं, न हु देवा तेण आवंति ।।९४।। अर्थात् - इस मनुष्य लोक की दुर्गन्ध चार-पाँच सौ योजन ऊपर तक पहुँचती है, इसीलिए देवता यहाँ नहीं आते ।।९४।। राजा ने फिर प्रश्न उठाया-"स्वामिन्! एक बार मैंने एक चोर को जिंदा पकड़ा और उसे एक लोहे की कोठी में डालकर उस पर ढक्कन लगा दिया। कुछ समय बाद जब वह ढक्कन खोला तो मैंने चोर को मरा हुआ पाया। उसकी लाश में बहुत से जीव उत्पन्न हो गये थें। परंतु उस कोठी में न कोई छिद्र हुआ और न कोई जीव ही निकलता दिखाई दिया। अन्य जीवों को कोठी में घुसने के लिए छिद्र चाहिए, वह भी मैंने नहीं देखा। इसीलिए मैं कहता हूं कि आत्मा नाम की कोई चीज नहीं है।'' केशीगणधर ने उत्तर दिया-'किसी मनुष्य को तलघर में रख दिया जाय और उसके सभी दरवाजे अच्छी तरह बंद कर दिये जाय। उसके बाद तलघर में रहा हुआ मनुष्य जोर से शंख अथवा भेरी बजाएँ तो क्या उसकी आवाज बाहर सुनाई देती है? राजा-'हाँ स्वामिन्! सुनाई देती है।' केशीश्रमण'जब रूपी आवाज (शब्द) के बाहर जाने से दीवार में छिद्र नहीं होता तो फिर अरूपी आत्मा के बाहर निकलने से छिद्र कैसे हो जायगा?' प्रदेशी राजा ने फिर शंका की-"स्वामिन्! मैंने एक चोर के शरीर के टुकड़े-टुकड़े किये, उसके प्रत्येक जरें-जर्रे को देखा परंतु उसमें कहीं आत्मा नजर नहीं आया।'' केशीगणधर ने कहा-"राजन्! तुम भी उस लकड़हारे के समान मूर्ख मालूम होते हो! कुछ लकड़हारे मिलकर एक जंगल में लकड़ियाँ काट कर लाने गये।'' जैसे उनमें से एक लकड़हारे ने कहा- 'यह अग्नि है; जब रसोई का समय हो तब इसे जलाकर रसोई करना। यदि आग बुझ जाय तो इस अरणि की लकड़ी में से आग उत्पन्न कर लेना।' यों कहकर वह और दूसरे सब लकड़हारे इधर उधर चले गये। दुर्भाग्य से आग बुझ गयी। उस मूर्ख लकड़हारे ने अरणि की लकड़ी लाकर उसे चूराचूरा कर दिया, मगर अग्नि उत्पन्न नहीं हुई। इतने में तो दूसरे लकड़हारे भी वहाँ आ पहुँचे। उसकी मूर्खता देखकर बुद्धिमान लकड़हारा दूसरी अरणि की लकड़ी लाया और उसे रगड़कर उसमें से आग पैदा की और रसोई बनाकर सबको भोजन खिलाया। जैसे लकड़ी के अंदर रही हुई अग्नि युक्ति से ही पैदा की जाती है, वैसे ही शरीर में रही हुई आत्मा को भी युक्ति से दृष्टिगोचर किया जा सकता है। 194
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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