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________________ श्री उपदेश माला गाथा १०२ केशीगणधर और प्रदेशी राजा की कथा केशीश्रमण से पूछा- "आपकी अनुमति हो तो यहाँ बैठं?" गुरुमहाराज ने कहा'यह तुम्हारी भूमि है, अतः जैसी तुम्हारी इच्छा हो वैसा करो।" यह सुनकर राजा उनके सामने बैठा। उसे बैठा देखकर आचार्य श्री ने जीवादि के स्वरूप का विशेष रूप से वर्णन किया। उसे सुनकर राजा ने ताव में आकर कहा-'यह सारी उटपटांग बातें हैं। जो वस्तु प्रत्यक्ष दीखाई दे, वही सत्य है, जैसे पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु प्रत्यक्ष दीखते हैं, वैसे यह आत्मा प्रत्यक्ष नहीं दिखता; इसलिए आकाश पुष्प के समान अविद्यमान आत्मा का अस्तित्व कैसे माना जा सकता है?" तब केशीगणधर ने कहा-"राजन्! जो वस्तु तुम्हारी नजर से नहीं दीखती, क्या वह दूसरे को भी दृष्टिगोचर नहीं होती? अतः तुम जो कहते हो कि मैं नहीं देखता, वह सब असत्य है, यह मिथ्याकथन है; क्योंकि सभी ने देखा हो और एक ने नहीं देखा हो, वह असत्य नहीं होता और यदि तुम कहो कि उसे सभी देख नहीं सकते तो क्या तुम सर्वज्ञ हो गये? सभी उसे देख नहीं सकते, यह बात तो सर्वज्ञ ही कह सकता है! जो सर्वज्ञ होता है, वह तो जीव को प्रत्यक्ष देखता है। लेकिन तुम तेरे शरीर के अग्रभाग को देख सकते हो, पिछले भाग को नहीं। फिर आत्मा का स्वरूप अरूपी है तो उसे तुम कैसे देख सकते हो? इसीलिए आत्मा के अस्तित्व और परलोक के अस्तित्व को मानो और धर्माचरण करो।" तब प्रदेशी राजा ने कहा- "स्वामिन्! मेरा पितामह अत्यंत पापी था, तो आपके मतानुसार वह नरक में जाना चाहिए। मैं उसे अतिप्रिय था, परंतु उसने वहाँ से आकर मुझे कभी नहीं कहा कि पाप मत करना, पाप करेगा तो नरक में जाना पड़ेगा। तब मैं आत्मा के अस्तित्व को कैसे मानूँ?" केशीगणधर ने इसके उत्तर में कहा–'तुम्हारी रानी सूरिकांता के साथ यदि किसी परपुरुष को विषयसेवन करते हुए देख लो तो तुम क्या करोगे?' राजा ने कहा "मैं एक ही प्रहार में उसके दो टुकड़े करके खत्म कर डालूं। उसे क्षणभर के लिए अपने परिवार से मिलने के लिए घर भी नहीं जाने दूं।" गुरु ने कहा- "बस, इसी तरह नरक में गया हुआ वह जीव भी कर्मों से बंधा हुआ है, इसीलिए यहाँ नहीं आ सकता।" फिर राजा ने पूछा-"अति-धर्मिष्ठ मेरी माता तुम्हारे मत के अनुसार स्वर्ग में गयी होगी। उसने भी आकर मुझे नहीं कहा कि 'वत्स! पुण्य करना। पुण्य से स्वर्ग मिलता है।' तो मैं आत्मा के अस्तित्व को कैसे सच मानूँ?" तब केशीगणधर ने कहा-"राजन्! तुम सुंदर वस्त्र पहनकर और चंदन आदि शरीर पर लेप करके स्त्री के साथ महल में क्रीड़ा कर रहे हो, उस समय यदि कोई चापडाल तुम्हें अपवित्र भूमि पर बुलाये तो क्या तुम वहाँ जाना पसंद करोगे?" राजा ने कहा- 'ऐसे समय मैं कदापि नहीं जाऊँगा।' गुरुमहाराज 193,
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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