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________________ केशीगणधर और प्रदेशी राजा की कथा श्री उपदेश माला गाथा १०२ शब्दार्थ - यह बात स्पष्ट है कि धर्माचार्य अनेक प्रकार से शत-सहस्र सुखों के देने वाले और हजारों दुःखों से छुड़ाने वाले होते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं। जैसे प्रदेशीराजा के लिए श्री केशीगणधर सुख के हेतु हुए ।।१०२।। प्रसंगवश यहाँ दोनों की कथा दे रहे हैं केशीगणधर और प्रदेशी राजा की कथा जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में कैकयी नामक अर्द्ध देश में श्वेताम्बी नाम की नगरी थी। अधर्म शिरोमणि प्रदेशी वहाँ राजा था; जिसके हाथ हमेशा खून से लिपटे रहते थे; परलोक और पुण्य-पाप के प्रति वह लापरवाह था। उसके चित्र सारथी नाम का प्रधान मंत्री था। एक दिन प्रदेशी राजा ने किसी आवश्यक कार्यवश उसे जितशत्रु राजा के पास श्रावस्ती नगरी भेजा। वहाँ उसने केशीकुमार श्रमण का उपदेश सुना। सुनकर अतीव प्रसन्न हुआ और श्रावकधर्म अंगीकार किया। उसने धर्म-स्नेह-वश अवसर देखकर केशीश्रमण से निवेदन किया- "स्वामिन्! मेरी प्रार्थना है कि आप एक बार श्वेताम्बी नगरी में पधारने की कृपा करें। इससे आपको लाभ ही होगा। वहाँ के अनेक भव्यजीवों को भी लाभ होगा। तब केशीगणधर ने कहा- 'देवानुप्रिय! वहाँ का राजा अतिदुष्ट है, इसीलिए वहाँ हम कैसे आ सकेंगे?' चित्रसारथी ने कहा- "राजा दुष्ट है तो क्या हुआ? वहाँ और भी बहुत-से भव्यजीव रहते हैं।" तब केशीगणधर ने कहा-"जैसा अवसर होगा, वैसा देखेंगे।" चित्र सारथी राजा का कार्य निपटाकर प्रसन्न होकर वापिस श्वेताम्बी आया। कुछ समय के बाद केशीगणधर भी बहुत से मुनियों-सहित श्वेताम्बी नगरी पधारें और नगरी के बाहर मृगवन नाम के उपवन में बिराजे। चित्रसारथी ने उनका आगमन सुना तो अतिप्रसन्न हुआ। मन में विचार करने लगा- 'मैं राज्य का हितचिंतक हूँ, दुर्बुद्धि और पापी बना हुआ मेरा राजा नरक में न जाय, ऐसा उपाय करना चाहिए। इसीलिए उसे किसी भी युक्ति से मुनि के पास ले जाऊं।' अत: चित्र सारथी प्रधान अश्वक्रीड़ा दिखाने के बहाने राजा को नगर के बाहर ले गया। अतिश्रम से थक जाने के कारण राजा ने मृगवन में चलने का प्रधान से कहा। श्री केशीगणधर उसी मृगवन में बिराजमान थें, और वे उस समय बहुत से लोगों को उपदेश दे रहे थे। उन्हें देखकर राजा ने चित्रसारथी से पूछा- "यह सिरमुंडा, मूढ़, जड़ और अज्ञानी इन लोगों के सामने क्या बोल रहा है?" चित्रसारथी ने कहा"मैं नहीं जानता। यदि आपकी इच्छा हो तो चलें, वहाँ जाकर सुने।" ऐसा कहने पर राजा चित्रसारथी के साथ वहाँ गया और वंदनादि रूप में विनय किये बिना ही . 192
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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