________________
दत्तमुनि की कथा
श्री उपदेश माला गाथा १०० में से नीरस आहार लाकर उपाश्रय में आये और आहार किया। शाम को प्रतिक्रमण वेला में दिन में लगे दोषों की अलोचना करते समय गुरुं ने दत्त से कहा"महात्मन्! तुमने आज धात्रीपिंड (बालक को प्रसन्न कर उसके मातापिता के पास से आहार लेना) का सेवन किया है; इसीलिए अच्छी तरह आलोचना करना।" यह सुन दत्त ने विचार किया- 'गुरुजी सूक्ष्म दोष देखते हैं, और बड़े-बड़े दोष नहीं देखते।' दत्तमुनि अब बात-बात में गुरु से ईर्ष्या करने लगा। प्रतिक्रमण करके अपने स्थान पर जाते समय गुरु के गुणों से रंजित होकर शासनदेवी ने सोचा-'इस दत्तमुनि को अपने गुरु के अपमान का फल बताना चाहिए। अतः उसने वहाँ इतना घना अंधकार फैलाया कि दत्त को रास्ता न सूझने से वह व्यामूढ़ और व्याकुल होकर गुरु को पुकारने लगा। गुरु ने कहा- 'वत्स! यहाँ आ जाओ।' तब उसने कहा-"गुरुजी! मैं वहाँ कैसे आऊँ? इस घने अंधेरे में मैं दरवाजा भी नहीं देख सकता।" तब गुरु ने अपनी अंगुली पर थूक लगाकर उसे ऊंची की। वह दीपक के समान जलती हुई दिखाई देती थी। यह देख दत्त ने विचार किया 'गुरु अति सावध (अतिदोष वाला) दीपक भी रखते दिखते हैं।' इसी तरह वह गुरु के अवगुण ही देखता रहा। उसका यह रवैया देख शासनदेवता ने कहा-"अरे दुरात्मन् पापी! तूं गौतम जैसे अपने गुरु का भी अपमान करता है? पता है, गुरु की घोर आशातना करके तूं कौन-सी दुर्गति में जायगा?'' इस तरह अत्यंत कठोर शब्दों से उसे डांटा, तब दत्तमुनि पश्चात्ताप करता हुआ गुरु के चरणों में गिर पड़ा और अपने अपराध के लिए उनसे बार-बार क्षमायाचना की। आखिर पापकर्म की सम्यग् आलोचना कर वह सद्गति का अधिकारी बना।
दत्तमुनि के इस दृष्टांत से यही उपदेश फलित होता है कि शिष्य को गुरु महाराज की अवज्ञा नहीं करनी चाहिए ।।९९।। अब गुरुभक्ति के संबंध में ज्वलंत उदाहरण देकर समझाते हैं
आयरियभत्तिरागो, कस्स सुनखत्तमहरिसिसरिसो । अयि जीवियं यवसियं, न चेव गुरुपरिभयो सहिओ ॥१०॥
शब्दार्थ - आचार्य 'गुरु' पर किसका भक्तिराग महर्षि सुनक्षत्र जैसा है, जिसने अपने प्राणों का त्याग कर दिया; मगर गुरु का पराभव सहन नहीं किया अतः सभी को ऐसा भक्तिराग अपनाना चाहिए ।।१००।।
इस संबंध में सुनक्षत्र मुनि का दृष्टांत इस प्रकार है
188