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________________ श्री उपदेश माला गाथा ६६ गुरु अवहेलक-दत्तमुनि की कथा शब्दार्थ - गुणवान सुविनीत शिष्य को जीते जी (प्रत्यक्ष) यश और कीर्ति प्राप्त होती है और मरने के बाद अगले जन्म में भी धर्म की प्राप्ति सुखपूर्वक होती है। किन्तु दुर्विनीत शिष्य की इस जन्म में भी अपयश और अपकीर्ति (बदनामी) होती है तथा आगामी जन्म में भी अधर्म यानी नरकादि गति प्रास होती है ।।९८॥ बुवावासे वि ठियं, अहव गिलाणं गुरुं परिभवंति । दत्तुव्य धम्मवीमंसएणं, दुस्सिखियं तं पि ॥१९॥ शब्दार्थ - बुढ़ापे में विहार करने की अशक्ति के कारण या किसी दुःसाध्य रोग के कारण एक जगह स्थित गुरु का जो तिरस्कार करते हैं, वे दत्त नामक शिष्य की तरह अपने धर्म से भ्रष्ट और दुःशिक्षित (दुष्ट शिष्य) हैं।।९९।। प्रसंगवश यहाँ दत्तमुनि का उदाहरण दे रहे हैं दत्तमुनि की कथा कुल्लपुर नाम के नगर में श्रमण संघ में कोई स्थविर आचार्य रहते थे। एक बार उन्होंने भविष्य में पड़ने वाले महान् दुष्काल की बात ज्ञान से जानकर गच्छ के समस्त साधुओं को दूसरे देश में भेज दिया। परंतु स्वयं वृद्धावस्था होने से तथा रुग्ण और विहार में अशक्त होने से, उसी नगर में बस्ती के नौ विभागों की कल्पना कर एक ही नगर में स्थिर हो गये। गुरु-सेवा के लिए एक बार दत्त नाम का शिष्य वहाँ आया। वह शिष्य जिस निवासस्थान में गुरुमहाराज को छोड़ गया था, उसी स्थान पर गुरु का विहारक्रम आता था, किन्तु उस शिष्य ने जब उसी स्थान पर गुरुमहाराज को देखा तो उसे शंका हुई और विचार करने लगा कि . 'गुरुजी पासत्था (पार्श्वस्थ) और उन्मार्गगामी हो गये दिखते हैं। इन्होंने स्थान भी नहीं बदला मालूम होता है।' इस आशंका से वह दूसरे उपाश्रय में अलग रहने लगा। भिक्षा के लिए वह गुरु के साथ जाता। छोटे-बड़े कुलों में घूमने पर भी भिक्षा नहीं मिली तो दत्त के मन में उद्वेग पैदा हुआ। गुरु ने उसकी चेष्टाओं पर से मन के विचार जान लिये और उसे वे एक बड़े सेठ के घर गोचरी के लिए ले गये। उस सेठ के घर व्यंतर के प्रकोप के कारण एक बालक हमेशा रोता था। यह देख गुरुमहाराज ने 'वत्स! रो मत;' यों कहकर चुटकी बजाई कि व्यंतर भाग गया और बालक चुप हो गया। इससे खुश होकर उसके माता-पिता ने गुरु को लड्डू भिक्षा में दिये। दत्त को वह आहार देकर गुरु ने उपाश्रय भेजा। जाते-जाते दत्त सोचने लगा- 'ऐसा बढ़िया आहार नियत (मुकर्रर किये हुए) घर में मिल सकता था फिर भी गुरु ने मुझे बहुत घूमाया। बाद में गुरुमहाराज भी सामान्य घरों = 187
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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