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________________ गुरु वचन स्वीकार | माला गाथा ६५-६८ जो कार्य बताया है, मुझे उसे अविलम्ब करना चाहिए ।।९४।। कारणविऊ क्याई, सेयं कायं वयंति आयरिया । तं तह सद्दहियव्यं, भवियव्यं कारणेण तहिं ॥९५॥ शब्दार्थ- कारण को जानने वाले आचार्य भगवान किसी समय यह कौआ सफेद है, ऐसा कहते हैं तो उसे श्रद्धा पूर्वक मान लेना चाहिए, उस समय यह सोचे कि इसमें भी कोई कारण होगा ।।९५।। भावार्थ - किसी कारणवश आचार्य भगवान् कोई न जचने वाली बात कहते हैं, तो उसे वैसी ही माननी चाहिए और विचार करना चाहिए कि 'ऐसा कहने में कोई न कोई कारण होगा, तभी गुरु महाराज ऐसा कहते हैं ॥१५॥ ___ जो गिण्हइ गुरुवयणं, भणंतं भावओ विसुद्धमणो । ओसहमिव पीजतं, तं तस्स सुहावहं होई ॥१६॥ शब्दार्थ - भाव से विशुद्ध मन वाला जो शिष्य गुरु महाराज के द्वारा वचन कहते ही अंगीकार कर लेता है तो उसके लिए वह वचन पालन औषध के समान परिणाम में सुखदायी होता है ।।९६।। भावार्थ - जैसे औषधी पीने में कड़वी लगती है, परंतु परिणाम में बहुत सुख देने वाली होती है, वैसे ही गुरुमहाराज का कहा हुआ वचन भी अंगीकार करने में कदाचित् कष्टकारी लगे तो भी परिणाम में वह सुखदायी और इस और पर भव में हितकारी होता है ॥९६।। अणुवत्तगा विणीया, बहुक्खमा निच्चभत्तिमंता य । गुरुकुलवासी अमुई, धन्ना सीसा इह सुसीला ॥१७॥ शब्दार्थ – गुरु के आज्ञानुवर्ती विनीत, परम क्षमावंत, नित्यभक्तिमात्र, गुरुकुलवासी, गुरु को (एकाकी व कष्ट में) नहीं छोड़ने वाले और सुशील शिष्य इस संसार में धन्यभागी हैं ।।९७।। भावार्थ - गुरुमहाराज की आज्ञानुसार चलने वाले, बाह्य-अभ्यंतर विनय करने वाले, गुरु की बहुत बातों को सहन करने वाले, हमेशा भक्ति में तत्पर, स्वेच्छाचारी नहीं; परंतु गुरुकुल में वास करने वाले, शास्त्रादि अध्ययन पूर्ण होने पर भी गुरु को नहीं छोड़ने वाले और सम्यग् आचरण करने वाले सुशील शिष्यों को धन्यवाद है, ऐसे सुशिष्य ही जैनशासन को प्रकाशमय करते हैं ।।९७।। जीयंतस्स इह जसो, कित्ती य मयस्स परभये धम्मो । सगुणस्सय निग्गुणस्स य, अजसो कित्ती अहम्मो य ॥९८॥ 186 - - -
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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