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________________ श्री उपदेश माला गाथा ६४ गुरु वचन स्वीकार का आगमन जानकर वज्रमुनि से झटपट अपनी बाजी समेट ली, लघुलाघवकला से शीघ्र ही सबके उपकरण यथास्थान रख दिये और दरवाजा खोला। आचार्यश्री ने सोचा- "इस पुरुषरत्न में अगाध ज्ञान भरा है। इसकी ज्ञानशक्ति अप्रकटित पड़ी न रह जाय। इसका लाभ साधुओं को मिल सके, ऐसा उपाय करना चाहिए।" दूसरे ही दिन आचार्य सिंहगिरि किसी आवश्यक कार्य के बहानें कुछ साधुओं को साथ लेकर वहाँ से अन्यत्र विहार करने लगे। उस समय अन्य साधुओं ने उनसे पूछा"गुरुदेव! आपके पधार जाने के बाद हमें वाचना कौन देगा?" आचार्यश्री बोले"यह बालमुनि वज्र तुम्हे शास्त्रवाचना देगा।" यह सुनकर किसी भी साधु ने यह शंका नहीं की कि 'यह बालमुनि हमें क्या वाचना देगा?' बल्कि 'तहत्ति' (ऐसा ही होगा) कहकर गुरु आज्ञा श्रद्धा पूर्वक स्वीकार की। आचार्य श्री वहाँ से विहार कर गये। अध्ययन-शील साधुओं ने वज्रस्वामी से शास्त्रवाचना ली। उनके अध्ययन कराने के ढंग से सबको संतोष हुआ। कुछ ही दिनों बाद आचार्यश्री वापिस पधार गये। उन्होंने शिष्यों से पूछा- 'तुम्हारा अध्ययन ठीक ढंग से हुआ या नहीं?" शिष्यों ने प्रसन्न मुद्रा में कहा-"गुरुदेव! हमारा अध्ययन बहुत ही व्यवस्थित ढंग से और थोड़े-से दिनों में काफी हुआ है। हमें वज्रस्वामी की अध्यापन-प्रणाली से बहुत संतोष है। हम तो आपसे विनम्र प्रार्थना करते हैं कि हमारे वाचनाचार्य अब वज्रस्वामी ही रहें।" शिष्यों की ऐसी प्रार्थना सुनकर आचार्यश्री ने वज्रस्वामी को . आचार्यपद दिया और वाचनाचार्य के रूप में उन्हें नियुक्त किया। - जैसे सिंहगिरि आचार्य के शिष्यों ने गुरुवचन मान्य कर लिये थे; वैसे ही अन्य मुनियों को भी गुरुवचन श्रद्धापूर्वक मान्य करने चाहिए। यही इस कथा का सारभूत उपदेश है ॥१३॥ मिण गोणसंगुलीहिं, गणेहिं वा दंतचक्कलाई से । इच्छंति भाणिऊणं, कज्जं तु त एव जाणंति ॥९४॥ शब्दार्थ - 'अरे शिष्य! इस सांप को अपनी उंगली से नाप अथवा इसके दांत दंतस्थान से गिन;' इस प्रकार गुरु द्वारा कहे जाने पर शिष्य तहत्ति (अच्छा गुरुजी!) कहकर उस कार्य को करें। मगर उस पर तर्क-वितर्क न करे। यही सोचे'इस कार्य के पीछे क्या मकसद है? यह तो गुरुदेव ही जानें।'।।९४।। भावार्थ - किसी भी कार्य के करने का गुरु जब आदेश दें तो विनीत शिष्य को शंकाशील बनकर यह नहीं सोचना चाहिए-गुरुजी ने यह कार्य मुझे करने का क्यों और किसलिए कहा? इनका इस कार्य के पीछे क्या प्रयोजन है? बल्कि ऐसा सोचे कि गुरुदेव शिष्य का एकान्तहित ही चाहते हैं। इसीलिए उन्होंने - 185
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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