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________________ समभाव एवं गुरु आज्ञा स्वीकार-वाचनाचार्य वज्रस्वामी का दृष्टांत श्री उपदेश माला गाथा ६३ भावार्थ - मुनि के शरीर पर कोई भक्तिभाव से बावने चंदन का लेप करे अथवा कोई द्वेषवश उसकी भुजा आदि का कुल्हाड़ी से छेदन करे और कोई उसकी निन्दा करे, कोई प्रशंसा; लेकिन महर्षि दोनों पर समभाव रखते हैं; क्योंकि महामुनियों का शत्रु और मित्र पर समचित्त होता है ॥९२।। सीहगिरिसुसीसाणं भदं, गुरुवयणसद्दहंताणं । वयरो किर दाही, वायणत्ति न विकोविरं वयणं ॥१३॥ शब्दार्थ - गुरुवचनों पर श्रद्धा रखने वाले सिंहगिरि आचार्य के सुशिष्यों का कल्याण हो। गुरुमहाराज ने जब अपने शिष्यों से कहा कि 'यह वज्रस्वामी तुम्हें वाचना देगा, तो उन्होंने तर्क-वितर्क करके गुरु के वचनों का लोप नहीं किया ।।९३।। ___भावार्थ - आचार्य सिंहगिरि ने जब अपने शिष्यों से कहा कि 'मेरी अनुपस्थिति में यह बालमुनि वज्रकुमार तुम्हें शास्त्रवाचना देगा।' तो सभी शिष्यों ने गुरुवचन को शिरोधार्य किया। उन्होंने शंकाकुल होकर विपरीत चिन्तन नहीं किया कि यह बाल साधु हमें किस प्रकार वाचना देगा? गुरुदेव के वचन पर दृढ़ श्रद्धा रखने वाले ऐसे सुशिष्यों का कल्याण हो। आगे वज्रस्वामी के जीवन की वह घटना दे रहे हैं वाचनाचार्य वज्रस्वामी का दृष्टांत .. वज्रस्वामी ने बाल्यकाल में उपाश्रय में साध्वियों के मुख से ११ अंगों का पाठ सुनकर पदानुसारिणी लब्धि के बल से ग्यारह ही अंगों का अध्ययन कर लिया था। ८ वर्ष की उम्र में उन्हें गुरुदेव ने दीक्षा दी थी। अपने गुरु के साथ विहार करते हुए वे एक गाँव में पहुंचे और वहाँ के उपाश्रय में ठहरे। एक दिन वज्रस्वामी को उपाश्रय में अकेले छोड़कर सभी साधु भिक्षाचरी को गये हुए थे। आचार्य श्री स्थंडिलभूमि गये हुए थे। वज्रस्वामी ने उपयुक्त अवसर जानकर सभी मुनियों के उपकरणों को रत्नाधिक क्रम से अपने सामने जमा दिये और उनके आसनों पर मुनियों की स्थापना (मुनि बैठे हैं, ऐसी कल्पना) करके स्वयं बीच में बैठ गये और उच्च स्वर से आचारांगसूत्र आदि की वाचना देने का अभिनय करने लगे। ठीक इसी समय स्थंडिलभूमि को गये हुए आचार्यश्री पधार गयें। परंतु उपाश्रय का द्वार बंद देखकर आचार्य आश्चर्य में पड़ गये। अंदर झांककर देखा तो वज्रस्वामी वाचना देने का उपर्युक्त अभिनय कर रहे हैं। आचार्य दंग रह गये। उन्होंने सोचायदि मैं सहसा द्वार खोलूंगा तो वज्रमुनि शंकित होकर घबरा जायगा। इसीलिए आचार्यश्री ने उच्चस्वर से 'निसीहि निसीहि' उच्चारण किया। यह सुनते ही गुरुजी 184
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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