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श्री उपदेश माला गाथा ६२
श्री तार्यमुनि की कथा
" साधु कानों से बहुत-सी बातें सुनता है और आँखों से भी बहुत-सी चीजें देखता है; लेकिन देखी हुई या सुनी हुई सभी बातें साधु के लिए कहने योग्य नहीं होती ||९३ || "
तार्य मुनि से सोनी के द्वारा बार-बार पूछे जाने पर भी जब जवाब नहीं मिला तो उसने मुनि को ही चोर मानकर क्रोधावेश में उन्हें घर में एक ओर ले जाकर धूप में खड़ा कर दिया और उनके मस्तक पर गीला चमड़ा कसकर बांध दिया। तेज धूप के कारण चमड़ा सूखकर सिकुड़ने और कठोर होने लगा, इससे मुनि के सिर की नसें तनने लगीं और आँखें एकदम बाहर निकल आयी। मुनि को असह्य वेदना हो रही थी, फिर भी न तो सुनार पर रोष व द्वेष ही किया और न ही क्रौंचपक्षी के जौ निगल जाने की बात कही। फलतः इस परम क्षमा के कारण शुक्लध्यानाग्नि में समस्त कर्मों को भस्म कर केवलज्ञान प्राप्तकर आयुष्य पूर्ण होते ही मैतार्य मुनि मोक्ष पधार गयें।
एक लकड़हारे ने उसी समय लकड़ियों की भारी जोर से डाली। उसकी जोर की आवाज सुनकर भय के मारे क्रोंचपक्षी ने घबराकर विष्टा की; उसमें वे निगले हुए सारे स्वर्णयव निकल पड़े। सोने के यवों को देखकर सोनी एकदम सकपका गया और अपने द्वारा हुए इस अकार्य से सिहर उठा। उसने भयभीत होकर सोचा- 'हाय ! आज मैंने कितना बड़ा अनर्थ कर डाला! एक मुनि की हत्या और वही भी राजा श्रेणिक के दामाद की ! राजा को पता लगते ही वह मेरे सारे परिवार को बुरी मौत मरवा डालेगा।" अब तो इससे बचने का और इस घोर अकार्य का प्रायश्चित्त करने का यही उपाय है कि मैं भगवान् महावीर के चरणों में जाकर अपने पापों का प्रायश्चित्त लूं और परिवार सहित मुनि जीवन अंगीकार कर लूं।' स्वर्णकार अपने परिवार सहित भगवान् महावीर स्वामी के चरणों में पहुँचा और सरलभाव से अपनी आलोचना करके प्रायश्चित्त लेकर शुद्ध हुआ और सपरिवार पंच महाव्रत ग्रहण किये। स्वर्णकार ने भी सुगति प्राप्त की ।
इसी प्रकार अन्य मुनिवरों को भी ऐसी उत्तम क्षमा धारण करनी चाहिए, यही इस कथा से प्रेरणा मिलती है ॥ ९१ ॥
जो चंदणेण बाहु, आलिंपड़ वासिणा वि तच्छेड़ | संथुइ जो अनिंदइ, महरिसिणो तत्थ समभावा ॥ ९२ ॥
शब्दार्थ - मुनि की बाहुओं पर कोई चंदन का लेप करे या कोई उसे कुल्हाड़ी से काटे; कोई स्तुति (प्रशंसा) करे और कोई निन्दा करे; परंतु महर्षि सब पर समभावी रहते हैं ।। ९२ ।।
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