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________________ श्री मैतार्यमुनि की कथा श्री उपदेश माला गाथा ६१ पिता के समान हैं। अतः कृपा करके दोनों लड़कों को ठीक कर दीजिए। "आपके सिवाय हड्डियों को बिठाकर स्वस्थ करने में कोई समर्थ नहीं है।" यह कहकर राजा मुनिचंद्र उन दोनों लड़कों को मुनि के पास ले आया। मुनि ने उन दोनों से कहा-"वत्स! यदि सुखपूर्वक जीना चाहते हो तो मुनि-दीक्षा ग्रहण करना स्वीकार करो। तभी मैं तुम्हें ठीक करूँगा; अन्यथा नहीं।" निदान उन दोनों लड़कों ने मुनिदीक्षा लेना स्वीकार किया। मुनि ने तत्काल दोनों की हड्डियाँ बिठाकर उन्हें स्वस्थ कर दिया। और उन्हें मुनि-दीक्षा देकर साथ लेकर वहाँ से अन्यत्र विहार कर दिया। उन दोनों मुनियों में से जो पुरोहितपुत्र था, उसके जातिगत संस्कार उभर आये। ब्राह्मणत्व का जात्यभिमान करने के कारण उसने नीचगोत्रकर्म का बंध किया। दोनों मुनि चारित्र की आराधना करके आयुष्य पूर्णकर देव बनें। उन दोनों में परस्पर गाढ़ स्नेह था। इसीलिए उन्होंने परस्पर एक दूसरे को वचन दिया कि हम दोनों में जो कोई यहाँ से पहले च्यवन होकर मनुष्यगति में उत्पन्न होगा, उसे देवलोक में रहा हुआ देव प्रतिबोध दे।" तदनन्तर देवलोक का आयुष्य पूर्ण कर पुरोहितपुत्र का जीव वहाँ से राजगृही नगरी में जातिमद के कारण मेहर नामक चाण्डाल के यहाँ मेती नाम की उसकी पत्नी की कुक्षि में पुत्ररूप में पैदा हुआ। उसी नगरी के किसी श्रेष्ठी के यहाँ चाण्डाल पत्नी आया-जाया करती थी। सेठानी के साथ उसका अत्यंत स्नेह था। सेठानी मृतवत्सा थी, उसका कोई भी बच्चा जिंदा नहीं रहता था। इससे उसे मन में बहुत दुःख होता था। उसने चाण्डाल पत्नी से यह बात कहीं तो उसने कहा-'सेठानीजी! चिन्ता न करो। अगर इस बार के गर्भ से मेरे पुत्र हुआ तो मैं आपको सौंप दूंगी।' ठीक समय पर चाण्डाल पत्नी के पुत्रजन्म हुआ। उसने चुपके से वह पुत्र उस सेठानी को सौंप दिया। सेठानी बहुत हर्षित हुई। उसने खूब धूम-धाम से पुत्रजन्मोत्सव किया और बालक का नाम मैतार्य राखा। जब वह १६ वर्ष का हुआ तो पूर्वजन्म के मित्र-देव के साथ वचनबद्ध होने से वह मित्रदेव (राजपुत्र का जीव) मैतार्य को प्रतिबोध देने आया। परंतु किसी तरह भी उसे देव का दिया हुआ प्रतिबोध न लगा। उन्हीं दिनों में उसके पिता (सेठ) ने आठ वणिक् पुत्रियों के साथ मैतार्य की सगाई कर दी। यह देखकर मित्रदेव ने इस मोहजाल से निकालने के लिए चाण्डालपत्नी (उसकी असली माता) के शरीर में प्रवेश किया, जिससे वह उन वणिकों के यहाँ जाकर उन्हें कहने लगी-“मैतार्य सेठ का नहीं मेरा पुत्र है। तुम अपनी कन्याएँ उसे क्यों दे रहे हो? इसका विवाह तो हम करेंगे।" यों बड़बड़ाती हुई वह जबरन मैतार्य को पकड़कर अपने घर ले आयी। तब वहाँ मित्रदेव ने मैतार्य के सामने प्रकट होकर कहा-"तुम हमारे परस्पर हुए 180
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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