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________________ श्री उपदेश माला गाथा ६१ श्री मैतार्यमुनि की कथा __ इसीलिए संभालो अपना राज्य! दुर्गति के कारणभूत इस राज्य से मुझे क्या सरोकार है? ऐसा विचार कर अपनी विमाता के पुत्र गुणचन्द्र को राज्य देकर सागरचन्द्र ने स्वयं दीक्षा ले ली। क्रमशः उग्रविहार करते हुए श्रुतधर गीतार्थ हो गये। एक बार उज्जयिनी से आये हुए किसी साधु ने श्री सागरचन्द्र मुनि से कहा'स्वामिन्! उज्जयिनी में आपके भाई का पुत्र और पुरोहित पुत्र दोनों मिलकर साधुओं का बड़ा अपमान करते हैं।' यह सुनकर गुरु की आज्ञा लेकर सागरचन्द्र मुनि उनको प्रतिबोध देने के लिए उज्जयिनी पधारें और जहाँ राजपुत्र और पुरोहितपुत्र थे, वहाँ जाकर उच्चस्वर से 'धर्मलाभ' कहा। उसे सुनकर वे दोनों बड़े खुश होकर परस्पर कहने लगे- 'चलो, आज 'धर्मलाभ' आया है, उसे खूब नचायेंगे।' यों मंत्रणा करके सागरचन्द्र मुनि का हाथ पकड़कर ये दोनों उन्हें महल में खींच लाये और अंदर से द्वार बंद करके उनसे कहा-"आज हमें नाचकर बताओ। नहीं तो हम तुम्हें बहुत पीटेंगे।" सागरचन्द्र मुनि ने समयसूचकता का विवेक करके उन दोनों से कहा-'तुम दोनों बाजा बजाओगे तभी मैं नृत्य कर सकूँगा।' दोनों तपाक से बोले- 'हमें बाजा बजाना नहीं आता।' साधु ने कहा'मुझे नृत्य करना भी नहीं आता।' तब उन दोनों ने उद्दण्डतापूर्वक कहा-'तो फिर आओ, हमारे साथ मल्लयुद्ध करो।' सागरचन्द्र मुनि को इस कला का गृहस्थाश्रम में अभ्यास था। इसीलिए दोनों उद्धत लड़कों के साथ मल्लयुद्ध करके दोनों की हड्डीपसलियाँ ढीली कर दी और तुरंत दरवाजा खोलकर अपने उपकरण लेकर वहाँ से चल पड़े। सीधे नगरी के बाहर जाकर वे कायोत्सर्ग में स्थिर हो गये। इधर राज-पुत्र और पुरोहित-पुत्र अत्यंत वेदना के कारण जोर से कराहने लगे। राजा सुनकर वहाँ आया और पूछा-"आज तुम्हें क्या हो गया? चिल्ला क्यों रहे हो?" तब लोगों ने राजा से कहा- "यहाँ एक मुनि आया था, उसी की करतूत दीखती है।" सुनकर राजा मुनि को ढूंढने के लिए निकल पड़ा। वन में कायोत्सर्ग में खड़े अपने बड़े भाई को मुनि रूप में देख राजा ने वंदना करके सविनय निवेदन किया- "स्वामिन्! आप जैसे महात्माओं के लिए दूसरों को पीड़ा देना उचित नहीं है।" तब सागरचन्द्र मुनि ने उत्तर में कहा-"राजन्! तूं धर्मावतार चन्द्रावतसंक राजा का पुत्र पञ्चम लोकपाल है; फिर भी साधु को दुःख देने वाले राजपुत्र और पुरोहितपुत्र को रोकता क्यों नहीं? अपने राज्य में अन्याय क्यों होने देता है?'' यह सुन मुनिचन्द्र राजा सारी वस्तुस्थिति समझ गया कि यह दोनों लड़कों की ही शरारत दिखती है। अतः राजा हाथ जोड़कर बोला- "नाथ! मेरा अपराध क्षमा करिए। मेरे पुत्र को अपने किये हुए अपराध का फल मिल चुका है। आप - 179
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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