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________________ श्री मैतार्यमुनि की कथा श्री उपदेश माला गाथा ६१ ___ इस प्रकार के विचारों के ज्वार के कारण सागरचन्द्र के चित्त में वैराग्य पैदा हुआ; वह राज्य से परांमुख रहने लगा। यह देख एक दिन उसकी विमाता ने उससे कहा- "मेरे दोनों पुत्र अभी राज्यभार उठाने में असमर्थ हैं; इसीलिए अभी तूं ही राज्य का संचालन कर।' इस तरह सागरचन्द्र को जबरन राज्य पर पुनः स्थापित किया। मगर वह विरक्त मन से राज्य संचालन करने लगा। पुण्ययोग से सागरचन्द्र राजा की समृद्धि और कीर्ति बढ़ने लगीं। इससे सौतेली मां के मन में उसके प्रति डाह पैदा हो गया; वह किसी भी उपाय से उसका सफाया करने की ताक में रहती थी। ____ एक दिन सागरचन्द्र राजा खेल के लिए उपवन में गया हुआ था। उसकी माता ने दासी द्वारा एक लड्डू भेजा। दासी लड्डू लेकर जा रही थी; उस समय विमाता ने उसे बुलाकर पूछा कि 'यह क्या ले जा रही है; दासी बोली-'मैं राजा के लिए लड्डू ले जा रही हूँ।' विमाता ने कहा- "देखें, बताना; वह लड्डू कैसा है?" दासी ने विमाता के हाथ में दे दिया। उसने विषमिश्रित हाथों से उस लड्डू को अच्छी तरह छूकर दासी को दे दिया। दासी ने वह लड्डू ले जाकर राजा के सामने रखा। राजा ने लड्डू हाथ में उठाया। ठीक उसी समय राजा के सौतेले भाई हाथ जोड़कर सामने खड़े थे। उसको देखकर स्नेहवश राजा ने सोचा-'अपने छोटे भाईयों को दिये बिना मुझे अकेले लड्डू खाना ठीक नहीं।' इस विचार से राजा ने उस लड्डू के दो टुकड़े किये और दोनों भाईयों को आधा-आधा टुकड़ा दे दिया; स्वयं ने बिलकुल नहीं खाया। थोड़ी ही देर में दोनों भाईयों के शरीर में जहर फैल जाने से मूर्छित होकर जमीन पर गिर पड़े। यह देखकर राजा बहुत दुःखी हुआ और मणि-मंत्र आदि प्रयोग करके उनका विष उतार दिया। दासी से पूछताछ करने पर राजा को पता लगा कि विमाता द्वारा लड्डू के जहर लिप्त हाथ लगाने से ही ऐसा हुआ है। सागरचन्द्र राजा ने विमाता को उपालंभ देते हुए कहा-"धिक्कार है तुम्हें! मैं जब राज्य सौंप रहा था, तब तुमने राज्य स्विकार नहीं किया और इस समय विष प्रयोग का अकार्य किया। लानत है तुम्हारी दुर्भावना को! स्त्रियों के चरित्र का पता लगाना बड़ा कठिन है।" नीतिकार कहते हैं नितम्बिन्यः पतिं पुत्रं, पितरं भ्रातरं क्षणम् । आरोपयन्त्यकार्येऽपि दुर्वृत्ताः प्राणसंशये ।।१२।। अर्थात् - दुराचारी नारियाँ अपने पति, पुत्र, पिता और भाई तक को क्षणभर में प्राणों को खतरा हो, ऐसे अकार्य में जुटा देती हैं ॥९२॥ 178
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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