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श्री उपदेश माला गाथा ६१
श्री मैतार्यमुनि की कथा श्री मैतार्यमुनि की कथा साकेतपुर में चन्द्रावतंसक नाम का अतीव धार्मिक राजा था। उसकी रानी का नाम सुदर्शना था। उसकी कुक्षि से सागरचन्द्र और मुनिचन्द्र नाम के दो पुत्र हुए। उनमें से बड़े पुत्र को राजा ने युवराजपद और छोटे पुत्र को उज्जयिनी का राज्य दिया। राजा की दूसरी रानी का नाम प्रियदर्शना था। उससे गुणचन्द्र और बाल चन्द्र नाम के दो पुत्र हुए। इस तरह पुत्रों सहित आनंद से राजा धर्मध्यान में जीवन बीताता था।
____ एक दिन चन्द्रावतंसक राजा ने पौषधव्रत ग्रहण किया था, उस रात को एकान्त में रहकर राजा ने अभिग्रह किया कि 'जब तक यह दीपक जलेगा तब तक मैं कायोत्सर्ग (ध्यान) में खड़ा रहूंगा।' ऐसा अभिग्रह कर राजा कायोत्सर्ग में खड़े रहे। दासी को राजा के अभिग्रह का पता नहीं था, इसीलिए ज्यों ही दीपक बुझने को होता दासी उसमें तेल भरती जाती थी। इस कारण दीपक जलता रहने से राजा भी कायोत्सर्गमुद्रा में खड़ा रहा। बहुत देर तक कायोत्सर्ग में खड़े रहने के कारण राजा के सिर में अत्यंत पीड़ा हुई। उसी पीड़ा में राजा का देहांत हो गया। समभावपूर्वक पीड़ा सहने के कारण वह मरकर देवलोक में उत्पन्न हुआ। पिता का इस तरह आकस्मिक अवसान देखकर सागरचन्द्र ने विचार किया इंस शरीर का आत्मा के साथ संबंध कृत्रिम और अस्थायी है। जो प्रातःकाल स्वस्थ दिखाई देता है; वह मध्याह्न में नहीं दिखाई देता, और जो मध्याह्न में दीखता है, वह रात को नष्ट हो जाता है। वायु के झौंके से हिलते हुए पत्ते के समान यह आयुष्य प्रतिक्षण क्षीण होता जाता है। अनुभवियों का कहना है
आदित्यस्य गतागतेरहरहः संक्षीयते जीवितम्, व्यापारैर्बहुकार्यभारगुरुभिः कालो न विज्ञायते । दृष्ट्वा जन्म-जरा-विपत्ति-मरणं त्रासश्च नोत्पद्यते,
पीत्वा मोहमयीं प्रमादमदिरामुन्मत्तभूतं जगत् ॥९१॥
अर्थात् - सूर्य के उदय और अस्त होने के साथ-साथ निरंतर आयुष्य का क्षय होता जाता है; बड़े-बड़े अनेक कार्यों के बोझ से और प्रवृत्तियों से समय कितना बीत गया, इसका पता भी नहीं चलता। और रोजाना जन्म, बुढ़ापा, विपत्ति तथा मृत्यु देखते-देखते (आदि हो जाने के कारण) मनुष्यों को इनका दुःख नहीं होता। मालूम होता है, कि 'यह जगत् मोहमयी प्रमाद रूपी मदिरा पी कर उन्मत्त हो गया है।' ॥९१॥
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