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भेद ज्ञान एवं चारित्र फल
श्री उपदेश माला गाथा ६०-६१
शब्दार्थ - सुविहित पुरुष धर्म के लिए शरीर रूपी घर का मोह छोड़ देते हैं, क्योंकि वे मानते हैं कि 'यह जीव भिन्न है और शरीर भिन्न है ।। ८९ ।।
भावार्थ - आत्मा के साथ इस शरीर का संबंध तो एक ही जन्म का है, और जन्म-जन्म में नया शरीर मिलता है; परंतु यदि धर्म छोड़ देने पर फिर उसका मिलना अतिदुष्कर होता है। अतः सद्विवेकी साधु समस्त सांसारिक सम्बन्धों को तिलांजलि देकर संयम के लिए प्राण को भी छोड़ देते हैं। सुविहित साधु प्राणांतकष्ट आ पड़ने पर भी संयम को नहीं छोड़ते। वे प्राणत्याग करके भी संयम की रक्षा करते हैं। ऐसे मुनियों को धन्य है ॥ ८९ ॥
एग दिवसंपि जीवो, पवज्जमुवागओ अनन्नमणो । जड़ वि न पावड़ मुक्खं, अवस्स वेमाणिओ होड़ ॥९०॥
शब्दार्थ - अनन्यमनस्क होकर यदि कोई व्यक्ति एक दिन भी चारित्र की आराधना करता है तो उसके फलस्वरूप उसे यदि मोक्ष न मिले, तो वैमानिक देवत्व तो अवश्य मिलता ही है ||१०||
भावार्थ - विशुद्ध एकाग्रमन से एक दिन भी संयम का पालन करने वाला साधु यदि मोक्षपद प्राप्त न कर सके तो उसे वैमानिक देवलोक तो अवश्य मिलता है । एक दिन का विशुद्धचारित्र भी सौभाग्य से ही मिलता है, ऐसा जानकर अप्रमत्त और सावधान होकर चारित्र की आराधना में यत्न करना उचित है ||१०||
सीसाढेण सिरंमि, वेढिए निग्गयाणि अच्छीणि ।
मेयज्जस्स भगवओ, नय सो मणसा वि परिकुविओ ॥९१॥
शब्दार्थ - जिनके मस्तक पर गीले चमड़े की पट्टी बांधी गयी और धूप
लगने से सूखने के कारण आँखें बाहर निकल आयी; फिर भी मैतार्य भगवान् मन से भी (पीड़ा देने वाले पर) क्रोधित नहीं हुए ।। ९९ ।।
भावार्थ - 'जब मैतार्य मुनि सोनी के घर भिक्षार्थ गये, तब उस सोनी के बनाये हुए सोने के अक्षत कोई पक्षी निगल गया। सोनी ने मुनि पर शंका करके उस संबंध में उनसे पूछा । पक्षी के प्रति करुणावश मुनि मौन रहे । फलतः सोनी ने उनको ही स्वर्णयवों का चोर मानकर गीले चमड़े की पट्टी उनके सिर पर बाँधी, धूप लगने से जब वह सूखने लगी तो नसें तनने लगी और मुनि की दोनों आँखें निकल गयी। इतना प्राणांत कष्ट होने पर भी मुनि जरा भी कोपायमान नहीं हुए। परम समतारस में तल्लीनता से मुनि ने मोक्षपद प्राप्त किया। ऐसी अनुपम समता के योग से ही साधक शीघ्र आत्मकल्याण कर सकता है। अन्य मुनिराजों को भी ऐसी क्षमा धारण करनी चाहिए।' प्रसंगवश मैतार्य मुनि की कथा कहते हैं
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