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________________ श्री उपदेश माला गाथा ८६ भेद ज्ञान एवं चारित्र फल ज्ञानाप्तिलोकपूजा-प्रशमपरिणतिः प्रेत्य नाकाद्यवाप्तिः । चारित्रे शिवदायके सुभगमतयस्तत्र यत्नं कुरुध्वम् ॥९०।। अर्थात् - जिस चारित्र के अंदर दुष्कर्म संबंधी प्रयास नहीं होता, न कुलटा स्त्रियों का संसर्ग है, और न पुत्र या स्वामी के दुर्वचन सुनने का दुःख है। इस चारित्र में राजा आदि को नमस्कार नहीं करना पड़ता; न भोजन, वस्त्र, धन और स्थान की चिंता करनी पड़ती है। इसमें ज्ञान की प्राप्ति है, लोगों में पूजाप्रतिष्ठा होती है; इस जन्म में परिणति (भावना) शांत रहती है और दूसरे जन्म में स्वर्ग एवं मोक्ष आदि की प्राप्ति होती है, हे विद्वान् पुरुषों! ऐसे मोक्षदाता चारित्र में आप प्रयत्न करो ॥८९॥ 'इसीलिए वत्स अवंतिसुकुमाल! जो चारित्र ग्रहण करके अनशन करता है, वही नलिनीगुल्म विमान प्राप्त कर सकता है।' इस तरह गुरु महाराज के मुख से सुनकर अवंतिसुकुमाल ने कहा--"मैं चारित्र और अनशनभाव अंगीकार करना चाहता हूँ| गुरु ने ज्ञान से जाना कि इसका कार्य इसी तरह सिद्ध होगा।" अतः रात को ही उसे साधुवेश देकर दीक्षित किया। उसने गुरु आज्ञा लेकर मुनिवेश में नगर के बाहर स्मशान भूमि में जाकर थोहर के वन में कायोत्सर्ग (ध्यान) किया। रास्ते में कांटे-कंकड़ आदि की रगड़ से अतिकोमल पैरों के तले से रक्त बहने लगा। उस गंध से पूर्वजन्म की अपमानित स्त्री इस समय शृंगाली के रूप में अपने बहुत से बच्चों के साथ वहाँ आयी और उसके शरीर को चाटने और खाने लगी। परंतु मुनि जरा भी क्षुब्ध नहीं हुए। स्थिर चित्त से समभाव पूर्वक असह्य वेदना सहन करने के कारण वे आयुष्य पूर्ण कर वहाँ से नलिनीगुल्मविमान में देव रूप में पैदा हुए। प्रातःकाल यह सारा वृत्तांत माता-भद्रा ने जाना। अतः एक गर्भवती पुत्रवधू को घर पर छोड़कर, सभी बहुओं के साथ भद्रा ने भी संसार से विरक्त होकर चारित्र ग्रहण किया। जो बहू घर में रही, उसके एक पुत्र हुआ। उस पुत्र ने स्मशानभूमि में एक मंदिर बनवाकर उसमें जिनप्रतिमा स्थापित की, और उस स्मशान का नाम 'महाकाल' रखा। जिस तरह अवंतिसुकुमाल ने धर्मपालन के लिए अपने शरीर का त्याग कर दिया, मगर ग्रहण किये हुए व्रतों को नहीं छोड़ा। इसी तरह अन्य जीवों को भी धर्म-पालन के विषय में प्रयत्न करना चाहिए। यही इस कथा से मुख्य प्रेरणा मिलती है ॥८८॥ उच्छूढ सरीरघरा, अन्नो जीवो सरीरमन्नति । धम्मस्व कारणे सुविहिदा, सररिं वि उड्डुति १८१११ 175
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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