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________________ श्री उपदेश माला गाथा ८८ शब्दार्थ - शालिभद्र ने मुनि बनकर विविध प्रकार की विशिष्ट तपश्चर्याओं से अपने शरीर को इस प्रकार सुखा दिया कि अपने घर जाने पर भी वे पहिचाने नहीं जा सके ॥ ८७ ॥ भावार्थ सुकुमाल शरीर वाले रूपवान और सुख के अभ्यासी श्री शालिभद्र ने वैराग्य से दीक्षा ली एवं विविध प्रकार की तपस्या से अपना शरीर इतना कृश कर डाला कि जब वे वापस राजगृह नगर में पधारें तब अपनी माता के घर आहार के लिए जाने पर घर के सेवकों आदि किसी के द्वारा भी पहचानें न जा सके। अवंतिसुकुमाल की कथा - दुक्कर - मुद्धोसकरं, अवंतिसुकुमाल - महरिसी - चरियं । अप्पा वि नाम तह, तज्जइति अच्छेरयं एयं ॥ ८८ ॥ शब्दार्थ - अवंतिसुकुमाल मुनि का चरित्र भी अतिदुष्कर है; जिसके सुनने से रोंगटे खड़े हो जाते हैं। उस महात्मा ने अपनी आत्मा को भी इतनी तर्जित की थी कि उसका सम्पूर्ण चरित्र सुनने में आश्चर्यकारक है ।।८८|| प्रसंगवश इसकी कथा दे रहे हैं 174 अवंतिसुकुमाल की कथा अवंती देश में उज्जयिनी नगरी में भद्रा नाम की धनिक - पत्नी रहती थी। उसकी कुक्षि से नलिनीगुल्म- विमान से आयुष्य पूर्ण कर एक पुत्र हुआ। जिसका नाम अवंतिसुकुमाल रखा। वह बत्तीस स्त्रियों के साथ विषयसुख का उपभोग करता हुआ सुख पूर्वक जीवन बिता रहा था। एक दिन अपने घर के निकटवर्ती उपाश्रय में बिराजमान श्री सुस्थित आचार्य के मुख से रात प्रथम प्रहर में नलिनीगुल्मविमान का वर्णन सुनकर उसे जातिस्मरणज्ञान हो गया। इससे अपने पूर्वभव का स्वरूप देखकर उसके मन में नलिनीगुल्मविमान में जाने की उत्कण्ठा हुई । अवंतिसुकुमाल ने आचार्यश्री के पास आकर विनय पूर्वक पूछा- 'भगवन्! आप नलिनीगुल्मविमान का स्वरूप किस उपाय से जानते हैं?' उन्होंने कहा - 'हम सिद्धांत रूपी नेत्रों से उसका स्वरूप जानते हैं।' अवंतिसुकुमाल ने कहा - 'गुरुदेव ! वह कैसे प्राप्त हो सकता है?' आचार्यश्री ने कहा- 'चारित्र की आराधना से, क्योंकि चारित्र इसलोक और परलोक में अनेक प्रकार के सुख देता है।' चारित्र का महात्म्य इस प्रकार हैनो दुष्कर्मप्रयासो न कुयुवति - सुत - स्वामि-दुर्वाक्यदुःखम् । राजादौ न प्रणामोऽशनवसन-धन-स्थान- चिन्ता न चैव ॥
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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